​उत्तराखंड, अपनी प्राकृतिक सुंदरता, संस्कृति और आस्था के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन इन दिनों यहाँ की सबसे बड़ी चिंता पलायन है। पहाड़ों के दर्द की एक पुरानी कहावत है, “पहाड़ों की जवानी, मिट्टी और पानी कभी पहाड़ों के काम नहीं आता।” यह कहावत पहाड़ों से हो रहे पलायन के दुख को दर्शाती है।

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​मानव सदियों से अपनी ज़रूरतों, सुरक्षा और शिक्षा-रोज़गार के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होता रहा है। इसी प्रवृत्ति के कारण, उत्तराखंड राज्य भी पलायन की मार से अछूता नहीं है। प्रोफेसर डी.डी. शर्मा ने अपनी पुस्तक “उत्तराखंड का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास” में स्पष्ट किया है कि पलायन अभावग्रस्त और संकटग्रस्त क्षेत्रों से संपन्न एवं सुरक्षित क्षेत्रों की ओर जाने के कारण होता है।

आंकड़ों में पलायन की स्थिति

उत्तराखंड के ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2020 तक उत्तराखंड में कुल 5,59,360 प्रवासी वापस लौटे थे। वहीं, सूचना का अधिकार कार्यकर्ता हेमंत गोनिया द्वारा दायर एक आरटीआई के अनुसार, पिछले 10 वर्षों में 50 लाख से अधिक लोग उत्तराखंड से पलायन करने के लिए मजबूर हुए हैं।
​पलायन के कारण और परिणाम

​उत्तराखंड आंदोलनकारियों का सपना एक अलग राज्य, बेहतर शिक्षा और रोज़गार का था। लेकिन आज, उत्तराखंड के कई गांव “भूत गांव” की श्रेणी में आ गए हैं और यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

​रोज़गार और शिक्षा: युवा पीढ़ी बेहतर शिक्षा और रोज़गार के अवसरों की तलाश में गांव से शहरों की ओर जा रही है, जैसे दिल्ली, चंडीगढ़ और देहरादून। कई लोग तो विदेशों में भी बस रहे हैं। एक तरफ यह युवाओं के लिए बेहतरीन अवसर है, वहीं दूसरी तरफ यह राज्य और सरकार के लिए एक गहरी चिंता का विषय है।

​आर्थिक असमानता: ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर शिक्षा, अस्पताल, और रोज़गार के अवसरों की कमी के कारण लोग पलायन करने को मजबूर हैं। आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए गाँवों में पर्याप्त साधन नहीं हैं।

​संस्कृति पर प्रभाव: पलायन का असर न केवल गांवों की आबादी पर पड़ रहा है, बल्कि यहाँ की समृद्ध संस्कृति पर भी पड़ रहा है। छलिया नृत्य और हुड़का दमो जैसे लोककलाएँ और त्यौहार भी इससे प्रभावित हो रहे हैं। पहाड़ी संस्कृति धीरे-धीरे खतरे में है।
​कोरोना काल में दिखी एक उम्मीद की किरण

​कोरोना महामारी के दौरान, बड़ी संख्या में प्रवासी अपने गांवों को वापस लौटे। इस समय लोगों को अपनी पुरानी ग्रामीण जिंदगी की याद आई। उन्होंने खेतों में फल, फूल और सब्जियां उगाना शुरू किया, जिससे वे अपने गांव के प्रति संवेदनशील होते दिखे। इससे पहाड़ों के संरक्षण की उम्मीद जगी, लेकिन बेहतरीन शिक्षा, कौशल और रोज़गार के मौकों की कमी ने लोगों को वापस शहरों की ओर जाने पर मजबूर कर दिया।

​पलायन रोकने के लिए सरकारी प्रयास

​पलायन की समस्या को रोकने के लिए सरकार को कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे। सरकार को मुख्य रूप से तीन मुद्दों पर काम करना होगा:
​शिक्षा: गांवों में शिक्षा के स्तर को सुधारना और स्कूलों की स्थिति को बेहतर बनाना।
​स्वास्थ्य: ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छे अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं की स्थापना करना।
​रोज़गार: युवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर रोज़गार के अवसर पैदा करना ताकि उन्हें बाहर जाने की ज़रूरत न पड़े।

​इन प्रयासों से ही ग्रामीण लोगों को पलायन करने से रोका जा सकता है और पहाड़ की लोक संस्कृति, जैसे छलिया नृत्य और त्यौहारों को संरक्षित किया जा सकता है। यह ज़रूरी है कि पहाड़ों में रह रहे लोगों की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति हो, तभी “बड़ी मंडुआ खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे” का सपना साकार होगा।

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