आज (रविवार) को लगेगा अश्विन (असोज) महिना , इसी महिने के प्रथम दिन मनाया जाता है खतड़ुवा पर्व ।।
वैसे “खतड़ुवा” पर्व अब पशुओं की मंगलकामना के लिये मनाया जाने वाला पर्व बन गया हैं पर इसके पीछे एक ऐतिहासिक कहानी भी जुड़ी हैं कालांतर में #उत्तराखंड दो अलग-अलग राज्यों में बँटा था #कुमाऊँ और गढ़वाल और स्वाभाविक तौर पर जैसा होता था उस वक्त दोनों के बीच द्वंद होता रहता था… ऐसे ही एक बार #कुमाऊँ ने #गढ़वाल पर चढ़ाई कर दी और इस युद्ध में कुमाउँनी सेना का प्रतिनिधित्व #गैड़बिष्ट कर रहे थे और गढ़वाली सेना का प्रतिनिधित्व #खतड़ सिंह तो युद्ध का नतीजा ये रहा कि कुमाऊँ की जीत हुवी और खतड़सिंह मारे गये …. उन दिनों संचार के साधन नहीं थे सो पूर्वनियोचित योजना के अनुसार जीत की खबर कुमाऊँ तक पहुँचाने के लिये आग जलायी गयी कुमाऊँ की तरफ से जो भी #आग को देखता वो भी #आग जला संदेश को आगे प्रेषित कर देता इस प्रकार जीत की खबर कुमाऊँ तक पहुँच गयी और फिर हर साल #विजयपर्व के रूप में मनाया जाने लगा और कालान्तर में इसमें अन्य उद्देश्य और मान्यताएँ जुड़ती रहीवैसे आधुनिक बुद्विजीवी और इतिहासकार इस घटना को सही नहीं मानते और कुतर्कों की सहायता से इसे झुठलाने की पुरजोर कोशिस करते हैं क्योँकि इससे उन के हित प्रभावित होते हैं पर इतिहासकार को इतिहासकार की तरह निष्पक्ष सोचना चाहिये न कि #राजनीतिज्ञ की तरह… वैसे इन्हीं के पूर्वज इस कथा का बखान अपने हितों के लिये बढ़ा चढ़ा के करते थे और अब ये खंडन अपने हितों के लियेकहते हैं जो समाज अपने शहीदों को भुला देता है, वीरों के बलिदानों को तिलांजलि दे देता है वो मिट जाता हैं..मेरे लिये तो #उत्तराखंड के ये दोनों ही वीर #गैड़सिंह #खतड़सिंह हमेशा उतने ही वंदनीय रहेंगे जितने #तीलूरौतेली आदि ..मैं #लिब्रान्डुओं की तरह उन्हें काल्पनिक पात्र कह अपमानित नहीं कर सकता निजी हित के लिये
।।भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा।।
।। गैड़ की जीत, खतडुवै की हार ।।