जी रये जागी रये,

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यो दिन यो बार भेंटने रये ।

दुबजस फैल जाए,

बेरी जस फली जाईये।

हिमाल में ह्युं छन तक,

गंगा ज्यूँ में पाणी छन तक,

यो दिन और यो मास भेंटने रये।

उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं हरेला आज मनाया जा रहा है. इसी के साथ उत्तराखंड में सावन महीने की शुरुआत हो जाएगा. गौरतलब है कि देशभर में सावन माह की शुरुआत चार जुलाई को हो गई है. हरेला प्रकृति से जुड़ा पर्व है. इस दिन पहाड़ में रहने वाले किसान हरेला के पौधे को काटकर देवी-देवताओं को समर्पित करते हैं और अच्छी फसल की कामना अपने ईष्ट देवता से करते हैं।

हरेला पर्व शुरू होने से नौ दिन पहले लोग घर के मंदिर या अन्य साफ सुधरी जगह पर इसे बोते हैं. इसके लिए साफ जगह से मिट्टी निकाली जाती है और इसे सुखाया जाता है. बाद में इसे छाना जाता है और टोकरी में जमा किया जाता है. मक्का, धान, तिल, भट्ट, उड़द, जौ और गहत जैसे पांच से सात अनाज डालकर सींचा जाता है. इसके बाद नौ दिनों तक पूरी देखभाल की जाती है. 10वें दिन इसे काटा जाता है और भगवान को अर्पित किया जाता है. इस दिन घरों में कई तरह के पहाड़ी पकवान बनाए जाते हैं।

उत्तराखंड के दोनों मंडल कुमाऊं और गढ़वाल दोनों में ही ये त्योहार मनाया जाता है. गढ़वाल क्षेत्र में इसे मोल संक्रांत के रूप में मनाया जाता है. धान झिंगोरे के खेतों को कीड़ों से बचाने के लिए मोल के पेड़ धान-झिंगोरे के खेतों में रोपे जाते हैं. कुमाऊं मंडल में हरेला पर्व की ज्यादा मान्यता हैं. हरेला को काटने के बाद घर के सभी सदस्य एक दूसरे को इससे पूजते हैं और लंबी उम्र और समृद्धि की कामना करते हैं।

उत्तराखंड के कई पहाड़ी गांव में सामूहिक रूप से भी हरेला बोया और काटा जाता है. काटने के बाद इसे स्थानीय ईष्ट देवता के मंदिर में समर्पित किया जाता है. पहाड़ी मान्यताओं के अनुसार हरेला जितना बड़ा होगा, खेती में उतना ही ज्यादा फायदा होगा. हरेला साल में तीन बार मनाया जाता है. हालांकि, सावन महीने के हरेले का सबसे अधिक महत्व है।

बोये जाते हैं सात प्रकार बीज

इस पर्व के लिये आठ-दस दिन पहले घरों में पूजा स्थान में किसी जगह या छोटी डलियों में मिट्टी बिछा कर सात प्रकार के बीज जैसे- गेंहूँ, जौ, मूँग, उड़द, भुट्टा, गहत, सरसों आदि बोते हैं और नौ दिनों तक उसमें जल आदि डालते हैं। बीज अंकुरित हो बढ़ने लगते हैं।हर दिन सांकेतिक रूप से इनकी गुड़ाई भी की जाती है और हरेले के दिन कटाई। यह सब घर के बड़े बुज़ुर्ग या पंडित करते हैं। पूजा ,नैवेद्य, आरती आदि का विधान भी होता है। कई तरह के पकवान बनते हैं।

नव-जीवन और विकास से जुड़ा है यह त्यौहार...

सभी सातों प्रकार के बीजों से अंकुरित हरे-पीले रंग के तिनकों को देवताओं को अर्पित करने के बाद घर के सभी लोगों के सर पर या कान के ऊपर रखा जाता है। घर के दरवाजों के दोनों ओर या ऊपर भी गोबर से इन तिनकों को सजाया जाता है।इस लोक-त्यौहार और परम्परा का संबंध उर्वरता, खुशहाली, नव-जीवन और विकास से जुड़ा है। कुछ लोग मानते हैं कि सात तरह के बीज सात जन्मों के प्रतीक हैं।

कुँवारी बेटियां लगाती हैं पिठ्या…

कुँवारी बेटियां बड़े लोगो को पिठ्या (रोली) अक्षत से टीका करती हैं और भेंट स्वरुप कुछ रुपये पाती हैं। बड़े लोग अपने से छोटे लोगों को इस प्रकार आशीर्वाद देते हैं। इस मौके पर दीर्घायु, बुद्धिमान और शक्तिमान होने का आशीर्वाद और शुभकामना से ओतप्रोत लोकगीत गाया जाता है:“जी रया जागि रया आकाश जस उच्च,धरती जस चाकव है जया स्यावै क जस बुद्धि,सूरज जस तराण है जौ सिल पिसी भात खाया,जाँठि टेकि भैर जया दूब जस फैलि जया…”

चावल भी सिल में पीस के खाएं…,

दूब की तरह फैलो…इस गीत का अर्थ है: “जीते रहो जागृत रहो। आकाश जैसी ऊँचाई, धरती जैसा विस्तार, सियार की सी बुद्धि, सूर्य जैसी शक्ति प्राप्त करो। आयु इतनी दीर्घ हो कि चावल भी सिल में पीस के खाएं और बाहर जाने को लाठी का सहारा लो,दूब की तरह फैलो।”हरेले के दिन पंडित भी अपने यजमानों के घरों में पूजा आदि करते हैं और सभी लोगो के सर पर हरेले के तिनकों को रखकर आशीर्वाद देते हैं। लोग परिवार के उन लोगों को जो दूर गए हैं या रोज़गार के कारण दूरस्थ हो गए हैं, उन्हें भी पत्र द्वारा हरेले का आशीष भेजते हैं।

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