जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा को उनकी पुण्यतिथि पर अल्मोड़ा में लोगो ने याद किया।

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मालरोड़ स्थित स्वागत की छत पर उनकी चित्र पर फूल अर्पित किये गए उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में गिर्दा के गीतों ने जान फूंकी थी. हर गली, नुक्कड़ पर गिर्दा के आंदोलन के गीत गूंजा करते थे. हाथ में हुड़की और उस पर थाप देते गिर्दा ने उत्तराखंड आंदोलन को अपने गीतों से जो धार दी थी, वो अविस्मरणीय है. राज्य बने 23 साल हो चुके हैं. राज्य आंदोलन में अपने आंदोलन गीतों से नेतृत्व करने वाले गिरीश तिवारी गिर्दा को भी दुनिया से गए 13 साल हो चुके हैं, लेकिन उनकी यादें आज भी लोगों को भावुक कर देती हैं।

गिर्दा आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनकी रचनाएं आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं. लखनऊ की सड़कों पर रिक्शा खींचने के बाद गिर्दा ने आंदोलन की ऐसी राह पकड़ी कि वह उत्तराखंड में आंदोलनों के पर्याय बन गये थे. उन्होंने जनगीतों से लोगों को अपने हक-हकूकों के लिये ना सिर्फ लड़ने की प्रेरणा दी, बल्कि परिवर्तन की आस जगाई. उत्तराखंड के 1977 में चले वन बचाओ आन्दोलन, 1984 के नशा नहीं रोजगार दो और 1994 में हुये उत्तराखंड आंदोलन में गिर्दा की रचनाओं ने जान फूंकी थी. हर आंदोलन में गिर्दा ने बढ़ चढ़कर शिरकत की. लेकिन 22 अगस्त 2010 को अचानक गिर्दा की आवाज हमेशा के लिये खामोश हो गई.

लेकिन इन सबसे अलग खास ये था कि गिर्दा ने जो बात अपनी रचनाओं के माध्यम से 1994 में कह दी, वो सब राज्य बनने के बाद सत्य होता दिखाई दिया. इसके अलावा गिर्दा साथियों के साथ इतने मिलकर रहते थे कि आज भी उनके सहयोगी रहे लोग उन्हें याद करना नहीं भूलते हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उत्तराखंड में गिर्दा की अहमियत महज एक कवि तक नहीं है. वह सही मायने में एक दूरदर्शी आन्दोलनकारी थे. उनकी मौत ने सूबे का सच्चा रहनुमा खो दिया, जिसकी भरपाई करना मुमकिन नहीं है.

युवा आंदोलनकारियों की प्रेरणा हैं गिर्दावहीं युवा आंदोलनकारी भारती जोशी कहती हैं कि गिर्दा से बहुत कुछ सीखा है. उनके गीत स्वत: स्फूर्त आंदोलन खड़ा कर देते हैं. जहां जरा सा अन्याय होता दिखा, वहां गिर्दा के गीत गूंजने लगते हैं

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