(उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस नेता ने सोशियल मिडिया पर विचार साझा किये)

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कोई भी व्यवस्था के संचालन के लिए राजसभा आवश्यक है। श्री राम भी लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे और राज सिंहासन संभाला तो उनकी राजसभा में अलग-अलग जातियां, सामाजिक विभेद, भाषाई भिन्नताएं आदि सबको प्रतिनिधित्व मिला।

,आप, राम जी की राजसभा का चित्र देखिए तो उसमें आपको केवल भाई, मंत्री गण, रिश्तेदार नहीं दिखाई देते हैं, रिश्तेदार के रूप में कभी राजा जनक विराजमान दिखाई देते हैं, तो मित्र के रूप में विभीषण भी हैं।

वानर, भालू जो उस समय गरीब वर्ग का प्रतिनिधित्व करते होंगे उनका प्रतिनिधित्व भी था, निषादों के राजा निषाद राज का भी स्थान उस राजसभा में मौजूद था तो वह श्री राम की एक विविधता पूर्ण राजसभा थी। एक तरफ ऋषि मुनि विद्वान थे तो दूसरी तरफ राज काज चलाने के सहयोगी थे तो अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व, अलग-अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व भी उस राजसभा में विराजमान था और इसीलिए भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने रामराज की बात कही, तो उनकी निगाह में रामराज एक आदर्शतम राजव्यवस्था थी।

आजाद भारत में वह इस व्यवस्था को लागू करना चाहते थे जिसमें शेर और बकरी एक ही घाट में पानी पिएं, जिसमें भय का स्थान न हो, जिसमें विश्वास सर्वोपरि हो, जहां ऊंच-नीच का भाव न हो, जहां न्याय सर्व सुलभ हो, सबको समान दर्जा प्राप्त हो, इसलिए उनकी प्रार्थना में “रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीताराम, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान”,.! वह, राम और रहीम में अंतर नहीं करते थे, वह एक-दूसरे को पर्यायवाची मानते थे और इसलिये जब अयोध्या में जमीन आवंटित हुई और शिलान्यास किया गया तो शिलान्यास करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी ने भी गांधी के सोच के इस रामराज की बात कही और उन्होंने कहा राम के आदर्शों पर राज का संचालन करेंगे और देश के अंदर रामराज स्थापित किया जाएगा।

सारी संवैधानिक विभिन्नताओं, भौगोलिक विषमताओं, भाषाई, सांस्कृतिक, खान-पान, संस्कृत के वेदों को भुलाकर सबको स्वीकार्य राम राज की कल्पना श्री राजीव गांधी जी ने देखी।

हमारे संविधान निर्माताओं ने भी हमारी लोकसभा व राज्यसभा को सारी विभिन्नताओं के राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व के रूप में संगठित किया। भारत की सारी भिन्नताएं हमारी लोकसभा और राज्यसभा में प्रतिबिंबित हुई। आप अपनी मातृ भाषा में बात कर सकते हैं, सदस्यों पर भाषा का प्रतिबंध भी नहीं रखा गया है, आपको अनुवाद की व्यवस्था उपलब्ध करवाना सचिवालय का दायित्व माना गया है।

भाषाई श्रेष्ठता को थोपा नहीं गया, मगर अंग्रेजी को न चाहते हुए भी संपर्क भाषा का दर्जा दिया गया, क्योंकि संविधान निर्माताओं का मानना था कि व्यवस्था संचालन के लिए ऐसा करना आवश्यक है। राजभाषा के रूप में हिंदी को स्थान दिया गया और उसी के साथ-साथ राजभाषा अधिनियम भी बनाया गया ताकि धीरे-धीरे हिंदी की स्वीकार्यता को सभी भारतीय भाषाओं के साथ आगे बढ़ाया जा सके और राजभाषा, राष्ट्रभाषा का स्थान ले सके। जब पहला लोकसभा का चुनाव हुआ तो उस समय सारा देश कांग्रेसमय था। मगर संविधान निर्माताओं ने न केवल संवैधानिक लोकतंत्र को अपनाया, बहुदलीय आधारित लोकतंत्र को भी स्वीकार किया क्योंकि वह जानते थे यदि विभिन्न क्षेत्रीय विभिन्नताओं से भरा हुआ भारत के लोगों को यदि अपना प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं होगा तो देश की एकता कमजोर पड़ेगी।

इसलिये उन्होंने बहुदलीय प्रणाली को अपनाया। आज जब कांग्रेस मुक्त भारत या विपक्ष मुक्त भारत की बात होती है, तो एक पूर्ण विरोधाभास आजादी के संविधान निर्माताओं की सोच और आज के देश के संचालकों की सोच में दिखाई देता है। हमारे संविधान की विभिन्न धाराओं के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे संविधान निर्माता सभी प्रकार की धार्मिक, सांस्कृतिक, क्षेत्रीय, सामाजिक और भाषाई विभिन्न नेताओं को संरक्षण देना चाहते थे।

इसलिए संविधान के जो मूल तत्व हैं उन तत्वों को इस तरीके से समावेशित किया गया ताकि कोई चाहे भी तो कभी इस सोच व समझ में अंतर पैदा न कर सके। माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस बात को स्पष्ट किया है कि यह हमारे संविधान की मौलिकताएं हैं, जिनमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। आज राज्य अपने अधिकारों को लेकर के चिंतित हैं। संविधान ने कतिपय क्षेत्रों में राज्यों को स्वायत्तता दी है। कानून बनाने व अपने राज्य के अंदर उसके संचालन की, आज इस स्वायत्तता पर अंकुश लगाने की कोशिश हो रही है।

राम सभा में बहुलता साफ तौर पर दिखाई देती थी। बहुलता का अर्थ है उस कालखंड में समाज की जिस तरीके से संरचना थी,आर्यावर्त व भारतवर्ष में वह परिलक्षित होती थी। आज जो आर्यावर्त का स्वरूप है, भारत का स्वरूप है, आज की राममय सभा लोकसभा में उसका प्रतिनिधित्व होना आवश्यक है। हमारा संविधान बहुलता को संरक्षण देता है, इसलिये विभिन्नता में एकता की बात करता है। यूनिटी इन डायवर्सिटी, यह हमारे संविधान की आत्मा है। हम एक बहुलवादी राष्ट्र हैं, इस सिद्धांत का द्यौतक है इसलिये हमारे देश के राजनेताओं ने जब देश स्वतंत्र हुआ तो कश्मीर घाटी भारत का हिस्सा बने इसके लिए वहां के जनमानस का समर्थन प्राप्त किया और महाराजा को भी उसके लिए सहमत करवाया।

नॉर्थ ईस्ट के राज्य जो हमारे बहुलता के ज्वलंत परिचायक हैं उनको देश की मुख्य धारा में सम्मिलित करने के लिए निरंतर प्रयास हुये हैं और आज भी प्रयास जारी हैं, और इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि उनकी जो आंचलिक संस्कृति है और भिन्नताएं हैं उन पर कहीं से भी आंच न आए, इसलिए संविधान की धारा 371 में उनको नाना प्रकार के संरक्षण दिए गये हैं।

हमारे देश में इसमें कोई शक नहीं है कि हिंदी और हिंदी की जो समवर्ती भाषाएं हैं, चाहे भोजपुरी हो, राजस्थानी हो, गढ़वाली हो, कुमाऊंनी हो, हरियाणवी हो, खड़ी बोली हो, मैथिली हो, इन भाषाओं व बोलियां को बोलने वाले लोग देश में बहुत तादाद में हैं। भाषाएं विभिन्नताएं भी संरक्षित रहे इसका प्राविधान भी हमारे संविधान में राजनेताओं ने किया। हमने भाषा, धर्म और संस्कृति को एक-दूसरे पर थोपा नहीं, सबको स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया। गांधी जी ने रामराज के संदर्भ में कहा कि मेरा हिंदू धर्म मुझे सभी धर्मों का सम्मान करना सीखता है, इसी में रामराज का रहस्य छिपा है।

यदि आप ईश्वर को राम के रूप में देखना चाहते हैं तो पहली आवश्यकता है आत्म निरीक्षण, हमें अपने दोषों को दूर करना होगा तभी वास्तविक अर्थों में रामराज यानि पृथ्वी पर ईश्वर का राज होगा। तुलसीदास जी ने भी उत्तर काण्ड में रामराज का वर्णन करते हुए कहा है कि (रामराज बैठे त्रिलोका, हर्षित भये गये सब सोका,बयरू न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।।)

मैं जानता हूं कि दक्षिण भारत के अंदर आज हिंदी बोलने और सीखने वालों की बहुत बड़ी संख्या है। बल्कि मुझे इस बात की तकलीफ है कि उत्तर भारत में दक्षिण भारत की भाषाएं सीखने का प्रयास नहीं हो रहा है, जबकि आजीविका के लिए भी हमको अपने भाषाई ज्ञान को विस्तृत करना चाहिए। क्योंकि दक्षिण में रोजगार की संभावनाएं निरंतर बढ़ रही हैं। द्रविड़ संस्कृति, वैदिक संस्कृति से थोड़ा भिन्न रही है।

मैं इस मंथन में नहीं जाना चाहता हूं कि कौन सी संस्कृति पहले आयी, लेकिन यह सत्यता है कि द्रविड़ संस्कृति, आर्य संस्कृति से थोड़ा सा भिन्न रही है और यदि हम संस्कृति श्रेष्ठता को थोपने का प्रयास करेंगे तो देश कष्ट में आ जाएगा, यदि हम भाषा थोपने का प्रयास करेंगे तो तब भी देश कष्ट में आएगा, यदि हम आचार, व्यवहार, खान-पान थोपने की कोशिश करेंगे तो भी हमारे कष्ट बढ़ेंगे। चाहे हमारे नॉर्थ ईष्ट हों या चाहे हमारा दक्षिण हो, यहां तक कि पश्चिम और पूर्वोत्तर राज्यों में भी आप किसी भी बंग्ला भाषी को यदि कहेंगे कि शुद्ध हिंदी में बात करो तो वह प्रतिकार करेगा। जबकि यह यथार्थ है कि हिंदी के विकास में जितना काम कोलकाता और उसके आस-पास हुआ वह अद्भुत है। मेरा कहने का तात्पर्य है कि इस बहुलता को संरक्षण देने वाली सभा होनी चाहिए। आज इसके विपरीत दिशा में प्रयास होते हुए दिखाई दे रहे हैं।

रामराज का मंत्र सहिष्णुता है। भगवान राम व उनके तीनों भाई धनुर्धर थे। धनुष और तुरिण के साथ भगवान राम के किसी भी चित्र को देखिए तो उनके चेहरे पर वात्सल्य, करुणा और सहिष्णुता ही दिखाई देगी, वीरत्व का भाव कहीं भी नहीं झलकता है। आज धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई, सहिष्णुता का निरंतर ह्रास हो रहा है। सनातन संस्कृत में जातीय व्यवस्था है, द्रविड़ संस्कृति इस वर्ण व्यवस्था पर चोट करती है। यदि कोई तमिल नेता सनातन धर्म की जातीय व्यवस्था की आलोचना करता है तो हम उसे धर्म विरोधी मान लेते हैं। यदि किसी दलित और अति पिछड़े वर्ग के नेता ने रामायण की किसी चौपाई को लेकर आलोचना कर दी तो हम पूरी शक्ति से राम विरोधी सिद्ध करने पर तुल जा रहे हैं।

तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस की एक चौपाई को लेकर यदि किसी का दर्द झलक रहा है तो हम उसे समझने के बजाय उसको और उसके कुनवे को राम विरोधी घोषित कर दे रहे हैं। सहिष्णुता, रामराज का अक्षय मंत्र हैं। आलोचना, सहिष्णुता की परख करने वाला मापन है। राजा रामचंद्र जी ने धोबी की आलोचना को भी पूरी सहिष्णुता से ग्रहण किया।

आज संसदीय लोकतंत्र है, मगर लोकतांत्रिक विपक्ष को दुश्मन माना जा रहा है। रामराज के लिए इस सोच से देश को बाहर आना पड़ेगा। विपक्ष को भी मित्र का दर्जा देना पड़ेगा। धर्म किसी देश की संरचना करता तो यूरोप में तो ज्यादातर ईसाई धर्म है, लेकिन आज यूरोप कई देशों में बटा हुआ है और सब अपनी स्थानीय श्रेष्ठता के गुणों के अंतर्गत अपने धर्म का पालन करते हैं और दूसरे धर्म को भी अंगीकार करते हैं।

आज बड़ी संख्या में अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, एशिया जिसमें भारत भी सम्मिलित है, लोग जाकर के यूरोप में बस रहे हैं और वहां के समाज में स्थान बना रहे हैं और यहां तक स्थान बना है कि इंग्लैंड के प्रधानमंत्री भारत में जन्मे व्यक्ति हैं और हिन्दू धर्म का पालन करते हैं तो इंग्लैंड जहां क्रिश्चियनिटी है वहां हिन्दू व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री हो, यह चमत्कार है और दुनिया में ऐसे चमत्कार निरंतर हो रहे हैं, क्योंकि दुनिया बहुल वादिता की तरफ जा रही है।

लोगों ने देखा है कि एक धर्म के आधार पर पाकिस्तान एक नहीं रह सका, वह दो हिस्सों में बट गया और अब भी विभाजन के दरवाजे पर खड़ा है। बलुचिस्तान आज जिस तरीके से विद्रोही तेवर अपनाए हुए है, हो सकता है कि पाकिस्तान को और विभाजन झेलना पड़े। राजा रामचंद्र इन विभिन्नताओं का आदर करते थे, इसलिये वो राजाओं के राजा कहलाए, इसीलिए ही वो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए, मर्यादा पुरुषोत्तम का अर्थ है जो मर्यादाओं का पालन करने में नियम, कानून, परंपराएं, संस्कृति, इन सबका संरक्षण करते हुये उनका पालन करते हुये, देश और संस्था का संचालन करने का काम करता है, वही मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाता है और इसीलिए राजा रामचंद्र जी को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया।

हम चाहते हैं कि हमारी जो सभा है जिसको लोकसभा कहते हैं, वह रामसभा के रूप में इन सारे गुणों से समावेशित हो, जिसमें चीजें थोपी न जाएं, जिसमें भिन्नताओं का आदर हो, कितना कण कटु लगता है जब सत्ता रूढ़ दल के लोग, विपक्ष विहीन भारत की बात करते हैं या कांग्रेस विहीन भारत की बात करते है। हम भाजपा के साथ भारत की बात करते हैं, हम सभी पार्टियों के साथ भारत की बात करते हैं। नेहरू की सबसे बड़ी देन यह थी कि नेहरू जी ने बहुलवादिता को अपने प्रारंभिक वर्षों में संरक्षण दिया और उसका सबसे बड़ा बहुलवादिता का प्रतिबिंब था बहुदलीय प्रणाली, उन्होंने अपने महान व्यक्तित्व के आकार के नीचे इन भिन्नताओं को समाप्त नहीं होने दिया बल्कि उनको पनपाने का काम किया।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब चीजों के लिए स्थान है, अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि अहंकार और रामत्व विरोधाभास पूर्ण हैं। रामराज में सबसे कमजोर नागरिक को भी न्याय मिलना चाहिए और जीवन के न्याय का अर्थ है कि वह सम्मान पूर्वक भोजन, कपड़ा, मकान, चिकित्सा व शिक्षा पा सके। गांधी जी ने कहा है कि मेरे सपनों का रामराज, राजा और रंक दोनों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करता है। उन्होंने यह भी कहा है कि अन्यायपूर्ण असमानताओं में रामराज्य नहीं हो सकता है। राम राज्य में ऐसा नहीं हो सकता है कि कुछ लोग निरंतर अमीर पर अमीर होते जाएं और ज्यादातर जनता को खाने के लिए भी पर्याप्त न मिले।

देश की वर्तमान स्थिति रामराज की बिल्कुल विपरीत है। कुछ लोगों की अमीरी सुपर सोनिक रॉकेट की तरह तेजी से ऊपर बढ़ रही है। देश की 10 प्रतिशत आबादी के हाथ में देश के 75 प्रतिशत संसाधन हैं। राम-रावण के युद्ध के बाद धरती पर अचेत पड़े हुए रावण के पास भगवान राम ने अपने भाई लक्ष्मण को रावण को महाज्ञानी बताते हुए उनके पास ज्ञान लेने के लिए भेजा और उनके पांव की तरफ बैठने का निर्देश दिया। विजयी राम की नम्रता का यह अद्भुत नमूना है। आज के लोकतांत्रिक भारत में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यदि हम राम राज चाहते हैं तो हमको उदारता और विनम्रता की श्री राम मर्यादा का अनुसरण करना होगा। आज कोशिश यह हो रही है कि विपक्ष को हर राज्य के अंदर चकनाचूर कर दिया जाय उसके लिए उन सभी संस्थाओं जो संविधान की मर्यादा की रक्षा के लिए बनाई गई थी उनका जमकर दुरुपयोग हो रहा है।

प्रयास है कि लोकसभा के चुनाव से पहले विपक्ष, धन हीन के साथ नेता विहीन भी हो जाए अर्थात लोकतंत्र की रेलगाड़ी एक ही पटरी पर चले। संविधान आधुनिक मर्यादा है। यदि आज रामराज लाना है तो संवैधानिक मर्यादा का संतुलित पालन होना चाहिए। देश राम रसमय रहे, शाश्वत रूप से रहे इसलिए लोकतांत्रिक युद्ध में दोनों पक्ष समान धरातल पर खड़े होने चाहिए, लेकिन आज ऐसा नहीं है। इस लोकतांत्रिक युद्ध में सभी राम भक्तों की परीक्षा है, वह सत्ता की राम भक्ति चाहते हैं या जनता जनार्दन की? राजा न्याय करता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम राजा हैं, राजा एक पक्ष नहीं हो सकता है। यदि लोकतांत्रिक रामराज आना है और लोकसभा, राम सभा बननी है तो उसके लिए आवश्यक है एक समान धरातल पर चुनाव हों।

यदि ऐसा होता है तो हम रामराज की कल्पना को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे होंगे। भगवान राम सबका मार्गदर्शन करें और संवैधानिक मर्यादा की रक्षा करें।( साभार फेसबुक हरीश रावत, यथावत पोस्ट)

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