( उत्तराखंड की जानी-मानी साहित्यकार प्रोफेसर दिवा भट्ट की पुस्तक “कोतली कथा” की समीक्षा कर रहे हैं जाने-माने साहित्यकार प्रोफेसर लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही)


आपका लोक प्रिय पोट्रल हिम शिखर परिवार साहित्य क्षेत्र में प्रकाशित पुस्तकों का समीक्षात्मक अध्ययन कर प्रचारित प्रसारित कर रहा है, इसी श्रृंखला में हमें उत्तराखंड की जानी-मानी साहित्यकार प्रोफेसर दिवा भट्ट की पुस्तक कोतली कथा का समीक्षात्मक अध्ययन जाने माने साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही ने किया है जो हमें उनकी फेसबुक से प्राप्त हुआ है सादर आभार सहित हम पाठकों के समक्ष पेश कर रहे हैं। संजय कुमार अग्रवाल
2024 में प्रकाशित यह उपन्यास अनेक कारणों से बहुत धीरे किश्तों में पढ़ा। शुरू में एक बिखरते परिवार की विडंबना के रूप में पढ़ता रहा और अपनी शारीरिक-पारिवारिक समस्याओं के दबाव ने उसे व्याधित कर दिया। थोड़ा फुरसत से पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि जिस लाइन पर मैं चल रहा था, दरअसल वह ट्रेक ही गलत था। काफ़ी देर भटकने के बाद यह अहसास हुआ, लेकिन अच्छा यह हुआ कि इससे उपन्यास की केंद्रीय पकड़ सामने आ गई और कुछ हद तक मुझे अपनी गलती का भी अहसास हुआ।
‘कोंतली कथा’ एक गाँव के क़स्बा बनने की कहानी भर नहीं है, जैसा मुझे शुरू में लग रहा था। यह नए भारतीय समाज में पनप और विकसित हो रही उस समाजार्थिकी की कशमकश का यथार्थ है जो औरत के हाथ में संसाधनों की रास आ जाने के बाद पैदा हुई है। ऐसा नहीं है कि इस द्वन्द्व को लेकर पहले नहीं लिखा गया, वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद का समूचा लेखन इसी उहापोह की उपज है। इस उपन्यास में पहली बार उक्त पृष्ठभूमि के अलावा दो बातों के साथ पाठक का सामना होता है।
पहला यह कि एक अनपढ़ पहाड़ी औरत यहाँ अपनी स्त्री-संवेदना के साथ मुख्यधारा की चेतना के बरक्स उभरी है, दूसरे पुरुष वर्चस्व के बने-बनाए फ्रेम में बिना लाउड हुए लेखिका स्त्री को संवेदना के शिखर पर खड़ा कर देती है। और ऐसा एक प्रबुद्ध स्त्री रचनाकार के सामने आने के कारण हुआ है। अमूमन उपन्यासों में ऐसा पक्ष लम्बी-चौड़ी बहसों से उभरता दिखाई देता रहा है, मगर यहाँ पारिवारिक संवेदना को स्त्री या पुरुष के खानों में न देखकर व्यापक धरातल पर देखा गया है, जिसमें घरेलू मवेशी, पारिवारिक रिश्तों के टूटते सूत्रों को भी समेटा गया है।
परिवार के ढांचे में लेखिका ने इस या उस नज़रिए की पक्षधरता नहीं ली है, मानवीय सरोकारों के बरक्स अपना पक्ष तय किया है। यही इस उपन्यास का मौलिक सौंदर्य है जो उसे अपने समकालीन लेखन से अलग और खास बना देता है। भाषा का आंचलिक गठन तो है ही, हालांकि उसकी अधिक बेहतर छवियां पहले ही हिंदी लेखन में सामने आ चुकी हैं।
वर्गीय द्वन्द्व की इकतरफ़ा सोच का खतरा भी शुरू में मंडरा रहा था, मगर लेखिका ने उसे उसे स्त्री-सुलभ करुणा से आड़े नहीं आने दिया और रचना को क्लासिक शक्ल देने में खूब मेहनत की, जरूर कुछ और वस्तुनिष्ठता की दरकार थी। भाषा में कुमाउनी शब्दों के विन्यास में थोड़ा और मेहनत की जरूरत भी महसूस हुई।
दिवा के लेखन का जो नया आयाम यह उपन्यास सामने लेकर आया है, उत्तराखंड की युवा पीढ़ी उससे समृद्ध होगी और अपनी भाषा तथा खुद के परिवेश को लेकर अपना पक्ष तय करने में मदद पाएगी।
“लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही”
साभार सोशियल मिडिया लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही


