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( वर्तमान परिप्रेक्ष्य में क्या कहती है सशक्त साहित्यकार की कलम)
कल ही मेरे भूतपूर्व शिष्य राजीवलोचन साह का सन्देश आया था कि ‘तल्लीताल बस अड्डे पर गाँधी की नई मूर्ति के आगे प्रख्यात पारिस्थितिकी विशेषज्ञ, पर्यावरणविद, वैज्ञानिक, आविष्कारक और शिक्षाविद हिमालयपुत्र सोनल वांगचुक की गिरफ़्तारी का आज सायं 6 बजे तल्लीताल डाट पर गांधीजी की नई मूर्ति के आगे मोमबत्ती जलाकर विरोध किया जाएगा. आपसे अपने मित्रों और परिजनों के साथ उपस्थिति देने का आग्रह है.’
मैंने वर्ड्सएप पर ही जवाब लिखा, ‘सोनल की गिरफ़्तारी दुर्भाग्यपूर्ण है. मैं इसकी निंदा करता हूँ. इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए.’
भूतपूर्व शिष्य का जवाब आया, ‘त्वरित प्रतिक्रिया के लिये आभार, मगर सरल भाषा में यह समझा दीजिए कि ‘राजनीति नहीं होने’ के लिए क्या करना चाहिए? क्या प्रोटेस्ट करना राजनीति के अंतर्गत आएगा? आजकल आप खूब विस्तार से लिख रहे हैं. इस विषय पर भी लिखेंगे तो समाज का मार्गदर्शन होगा.’ इसके बाद नमस्कार और गुलाब का इमोजी था.
मैंने उन्हें लिखा, ‘हमेशा संदेह से देखना ठीक नहीं होगा. सूचना मिलते ही मैंने सोचा कि नैनीताल में ही हूँ, शाम को चला जाऊंगा. फिर सोचा, अपनी भावनाएं तो लिख ही देता हूँ, दिया जलाने के कर्मकांड को फ़िलहाल रहने देता हूँ. इससे एक-दूसरे के प्रति वैसा ही रुख सामने आ जाता है जिसका तुमने जिक्र किया है. मुझे औरों की चिंता नहीं है, तुमको अपनी भावना बतानी थी, सो बता दी. आगे भाई, तुम कुछ भी सोचने के लिए स्वतंत्र हो.’
लगभग ऐसा की वाकया गांधीजी की पुरानी मूर्ति को प्रशासन द्वारा अन्यत्र शिफ्ट करने को लेकर हमारे इन सनातन उत्साही विद्रोही युवाओं के द्वारा किये गए विरोध के समय सामने आया. मैंने सिर्फ यह कहा कि ‘प्रशासन अगर सिर्फ मूर्ति शिफ्ट की बात कर रहा है तो उसे वक़्त दिया जाना चाहिए; नहीं हटाएगा तो विरोध की रणनीति तब तय की जानी चाहिए.’ मगर विरोध में मोमबत्ती जलाने का सिलसिला जारी रहा जो महीने भर से अधिक तक चलता रहा.
एक दिन प्रशासन ने क्रेन से ढोकर गांधीजी की चरखा कातती विशाल मूर्ति बस अड्डे के ठीक बीच में खड़ी करके पुरानी को हल्का-सा बगल में खिसका दिया. दोनों खुश हो गए; आन्दोलनकारी भी और प्रशासन भी. मोमबत्ती सुलगना थम गया.
अब कल उस नई मूर्ति के आगे जमावड़ा करके सोनल को मुक्त करने के नारे उन्हीं आन्दोलनकारियों के द्वारा लगाये गए. पूरे देश में सोनल को जेल से रिहा करने के विडिओ सामने आ रहे है, जो लाखों की संख्या में हैं. उनमें एक आवाज मेरी भी है, हालाँकि परदे के पीछे.
पिछली बार के प्रकरण में नैनीताल के मेरे भूतपूर्व शिष्यों और आलोचकों ने एक स्वर से मुझ पर आरोप लगाया था कि मैं प्रशासन का चमचा बन गया हूँ और उनके किसी आन्दोलन का साथ नहीं देता. अब इस अस्सी की उम्र में प्रशासन के साथ मेरी क्या यारी या दुश्मनी हो सकती है? रिटायर हुए बीस साल से अधिक हो चुके, अपनी मेहनत और कल्पना का खा-पी रहा हूँ, मुझे किसी से क्या अपेक्षा हो सकती है? मोटी पेंशन मिलती है जिसे ट्रेजरी ऑफिसर मेम बिना तकादा किये हर महीने की पहली तारीख को मेरे बैंक-अकाउंट में डाल देती है. मैंने कभी उनका अलग से आभार व्यक्त नहीं किया, जैसे गाँधी की मूर्ति के पास से गुजरते हुए मैं कभी उन्हें नमस्कार नहीं करता, हालाँकि यह कृतज्ञता सदा मन में रहती है कि इस शख्स के नेतृत्व में हमें आज़ादी मिली थी. कभी-कभार किसी मूर्ति को लेकर यह भाव पैदा हो जाता है, जरूरी नहीं कि दूसरे गाँधी को लेकर भी यही भाव मन में आता हो. अनेक गाँधी पैदा कर दिए गए हैं इन आन्दोलनकारियों ने, किस-किस को नमस्कार करूँ?
(भूतपूर्व शिष्य उसे कहते हैं जिसे आपने पढ़ाया तो हो मगर जो आपकी दीक्षा को जरा भी मानने के लिए तैयार न हो; सम्मान करना तो दूर!)
साभार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही



