( आयुर्वेदाचार्य वैघ अजीत तिवारी)

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संक्रांति में पुण्य काल ज्योतिष, पुराणों एवं धर्मशास्त्राादि के अनुसार संक्रांति के पुण्यकाल के विशेष महत्त्व है। इस काल में जप, दानादि पुण्य कार्य का फल अनन्तगुणा होता है। मुहूर्तचिन्तामणि में पुण्यकाल के विषय में यह श्लोक उद्धृत है -संकान्तिकालादुभयत्र नाडिकाः पुण्या मताः षोडशषोडशोष्णगोः ।

निशीथतोऽर्वागपरत्र संक्रमे पूर्वापराहणानतिमपूर्वभागयोः ।।अर्थात सूर्य की संक्रान्ति काल (जिस समय सूर्य का राशि परिवर्तन होता है वह स्पष्ट काल) से सामान्य दोनों तरफ सोलह-सोलह घड़ियां पुण्यकाल (पवित्र) मानी है। अर्थात् स्पष्ट संक्रांति काल से सोलह घटी पहले से प्रारम्भ होकर सोलह घटी बाद तक का समय पुण्यकाल होता है।अर्धरात्रि के पहले तथा बाद में संक्रान्ति हो तो पहले और पिछले दिन के परभाग और पूर्वभाग में संक्रान्ति का पुण्यकाल माना जाता है।

अर्थात यदि अर्धरात्रि से पहले संक्रान्ति हो तो पहले दिन के पिछले भाग में पुण्यकाल माना जाता है और यदि अर्धरात्रि के बाद संक्रान्ति हो तो पिछले दिन के पूर्वभाग में पुण्यकाल माना जाता है-पूर्ण निशीथे यदि संक्रमः स्यादिनद्वयं पुण्यमथोदयास्तात् ।

पूर्व परस्तांद्यदि याम्यसौम्यायने दिने पूर्वप रेतु पुण्यः ।।यदि स्पष्ट अर्धरात्रि में संक्रान्ति हो तो दोनों दिनों में पुण्यकाल होता है। सूर्योदय से पहले तथा बाद में कर्क और मकर की संक्रान्ति हो तो क्रम से पहले दिन में और पिछले दिन में पुण्यकाल जानना चाहिए।

अर्थात् सूर्योदय से पहले कर्कसंक्रांति हो तो पहले दिन में पुण्यकाल और सूर्यास्त के वाद मकरसंक्रान्ति हो तो पिछले दिन में पुण्यकाल जानना चाहिए।आधे उदय हुए और आधे अस्त हुए सूर्य के मण्डल से पूर्व तथा बाद में क्रम से तीन तीन घडी को सन्ध्याकाल कहा है। अर्थात् जिस समय सूर्य का बिम्ब आधा उदित होता है उस काल से तीन घटी पूर्व तथा आधे उदित हुए सूर्य के बाद की तीन घड़ी मात सन्ध्याकाल कहा है।

इसी प्रकार आधे अस्त हुए सूर्य के बाद की तीन घड़ी सायं तच्या कहीं है यदि प्रातः संध्या में दक्षिणायन की प्रवृत्ति हो तो सूर्योदय से पश्चात् पुण्यकाल होता है तथा सायं सन्ध्या में उत्तरायण की प्रवृत्ति हो तो सूर्य के अस्त से पहले पुण्यकाल जानना चाहिए।कर्क, वृष, सिंह, वृश्चिक तथा कुम्भ इनके संक्रान्ति काल से पूर्व की सोलह घडी पवित्र है। तुला और मेष की संक्रान्ति के मध्य की सोलह घड़ी पवित्र है और मिथुन कन्या धनु मीन इन संक्रान्तियों की और मकर की संकान्ति की संकान्तिकाल के याद की सोलह घड़ी पवित्र कही गई है।

इसका विस्तृत विचार आप धर्मशास्त्र में पढ़ सकते है।बारानुसार संक्रान्ति का फल -मुहूर्तचिन्तामणि के अनुसार उग्र नक्षत्रों में रविवार के दिन होने वाली संक्रान्ति की घोरा संज्ञा है। यह शूद्रों को सुख देती है। लघु नक्षत्रों में और सोमवार के दिन संक्रांति हो तो ध्यांक्षी संक्रांति कहलाती है।

वह वाणिज्य कर्म करने वालों को सुख देती है। चर नक्षत्रों तथा भौमवार के दिन संक्रांनि हो तो उसे महोदरी संक्रांति कहते है वह चोरों को सुख देती है। मैत्र नक्षत्रों में तथा बुधवार के दिन होने वाली संक्रांति मन्दाकिनी संज्ञक है वह राजाओं को सुख देती है। अस्थिर नक्षत्रों में और वृहस्पतिवार के दिन संक्राति हो तो उसकी मंदा संज्ञा है वह मंदा ब्राह्मणों को सुख देती है।

मिश्र संज्ञक नक्षत्रों में शुक्रवार के दिन संक्रांति हो तो उसकी मिश्र संज्ञा है वह पशुओं को सुख देती है। तीक्ष्ण संज्ञक नक्षत्रों में और शनिवार के दिन संक्राति हो तो उसे राक्षसी कहते है तथा वह चाण्डालों को सुख देती है।दिन के तीन भाग करके प्रथमभाग में संक्रांति हो तो राजा के लिए अनिष्टकारक है। मध्य भाग में हो तो ब्राहाणों को नष्ट करती है और तीसरे भाग में हो तो वैश्यों को नष्ट करती है।

अस्त के समय होवे तो शूद्रों को नष्ट करती है। यदि संक्रान्ति रात्रि के पहले प्रहर में हो तो पिशाच आदिकों को नष्ट करती है। दूसरे प्रहर में होवे राक्षसों को नष्ट करती है, तीसरे प्रहर में होये तो नटों को और चौथे प्रहर में हो तो पशुपालकों को नष्ट करती है तथा सूर्योदय में होवे तो पाखण्डियों को नष्ट करती है।

मकर संक्रांति पर्व-[ समय : सूर्य जिस दिन मकर राशि में प्रविष्ट हो ]काल-निर्णयसंक्रान्ति के प्रवेश के अनन्तर कीभ ४० घड़ियों (१६ घण्टे) को पुण्यकाल माना जाता है। उनमें भी २० घड़याँ (८ घण्टे) अत्युत्तम हैं। यदि सार्यकाल में सूर्यास्त से १ घड़ी (२४ मिनट) पहले प्रवेश हो तो संक्रान्ति से पूर्व ही स्नान-दानादिक करने चाहिए, क्योंकि संक्रान्ति के दिन रात्रि में भोजन का निषेध है और संतानयुक्त गृहस्थ के लिए उपवास का भी निषेध है।

रात्रि में संक्रान्ति का प्रवेश हो तो दूसरे दिन मध्याह्न तक स्नान दानादि किये जा सकते हैं, किन्तु सूर्योदय से ५ घड़ी (२ घण्टे तक का समय अत्यन्त पवित्र होता है। यह स्मरण रखना चाहिए कि संक्रान्ति के जितना समीप स्नान- दानादि हों उतना उत्तम माना जाता है।या याः सन्निहिता नाडयस्तास्ताः पुण्यतमाः स्मृताः ।शुक्लपक्ष में सप्तमी के दिन यदि यह संक्रान्ति हो तो वह ग्रहण से भी अधिक मानी जाती है।विधियह स्नान-दान का पर्व है। जो इस दिन स्नान न करे उसके लिए कहा गया है कि वह सात जन्म तक रोगी और निर्धन होता है। प्रयाग-स्नान का इस दिन विशेष माहात्म्य है।

संतानरहित व्यक्ति को उपवास भी करना चाहिए । संतानवाले को उपवास का निषेध है। अधिकारी व्यक्ति को श्राद्ध भी करना चाहिए। इस दिन तिलदान और वस्त्रदान का विशेष फल है।१. ‘शुक्लपक्षे तु सप्तम्यां सङ्क्रान्तिर्ग्रहणाधिका ।’ (धर्मसिन्धु )२. ‘रविसङ्क्रमणे प्राप्ते न स्नायाद्यस्तु मानवः । सप्तजन्मसु रोगी स्यान्निर्धनश्चैव जायते ।।’ (धर्मसिन्धु)काल-विज्ञानग्रहों के घूमने के मार्ग को क्रान्तिवृत्त कहा जाता है। इस वृत्त के बारह विभाग है, जिनको मेष, वृष इत्यादि बारह राशियाँ कहा जाता है। सूर्य भी इन १२ राशियों का एक वर्ष में परिक्रमण कर लेता है।

उसके एक राशि से दूसरी राशि पर जाने को संक्रमण अथवा संक्रान्ति कहते हैं। १२ राशियों में से कर्क से धनुराशि (चौथी से नवीं) तक दक्षिणायन रहता है। जिस दिन सूर्य मकर (दसवीं) राशि में प्रवेश करता है उस दिन से उत्तरायण आरम्भ होता है। अभिप्राय यह कि मकर संक्रान्ति में सूर्य का प्रवेश उत्तरायण का आरम्भ है। पूर्वोक्त बारह संक्रान्तियों में से प्रत्येक संक्रान्ति का दिन पवित्र माना जाता है, पर उनमें भी दोनों अयन-संक्रान्तियाँ (कर्क और मकर) विशेष पवित्र हैं और उन दानों में उत्तरायण की मकर संक्रान्ति देवताओं के दिनारम्भ का दिवस होने से सर्वोत्तम मानी जाती है। धर्मशास्त्रों में इस पवित्र दिवस के स्नान-दानादि का विशेष फल कहा गया है।

सप्तमी सूर्य का दिन है- ‘सप्तम्यां भास्करस्य च (अग्निपुराण)’ और शुक्लपक्ष की प्रशस्तता तो पहले अनेक स्थानों पर बतायी ही जा चुकी है। अतः शुक्लासप्तमी को इसकी विशिष्टता उचित ही है।सूर्य की 12 संक्रान्तियों में मकर संक्रांति का विशेष महत्व हैं।सम्पूर्ण भारतवर्ष के हिन्दुधर्मावलम्बी इस पर्व को श्रद्धा एवं उल्लास के साथ मनाते है। इस दिन भगवान सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते है तथा उत्तर की ओर चलना प्रारम्म करते है।

आधुनिक विज्ञान भी इस पर्व के महत्त्व को स्वीकार करता है कि मकर संक्रांति के समय नदियों में वाष्पन क्रिया होती है। इससे समस्त प्रकार के रोग दूर हो सकते हैं। इसलिए इस दिन नदियों में स्नान करने का विशेष महत्व है।

महाभारत में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था, कारण कि उत्तरायण में देह छोड़ने वाली आत्माएँ या तो कुछ काल के लिए देवलोक में चली जाती हैं या पुनर्जन्म के चक्र से उन्हें छुटकारा मिल जाता है।

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायण का महत्व बताते हुए गीता में कहा है कि उत्तरायण के छह मास के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत सूर्य के दक्षिणायण होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है और इस अंधकार में शरीर त्याग करने पर पुनः जन्म लेना पड़ता है।पुनश्च मकरसंक्रांति की हार्दिक बधाई 💐💐🙏🙏 वैद्य अजीत तिवारी आयुर्वेद एवं ज्योतिष आचार्य

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