आज उत्तराखंड के लिए उत्सव का नहीं, बल्कि यादों और श्रद्धांजलि का दिन है। आज से ठीक 31 साल पहले, 1 और 2 अक्टूबर 1994 की रात को जो कुछ हुआ, उसे ‘रामपुर तिराहा कांड’ के नाम से जाना जाता है। यह एक ऐसी दुखद घटना है जिसे उत्तराखंड का कोई भी व्यक्ति भूल नहीं सकता। इस मौके पर प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी समेत सभी लोगों ने उन शहीदों को नमन किया, जिन्होंने एक अलग राज्य के सपने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी।

उस समय उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का ही एक पहाड़ी हिस्सा था। पहाड़ों में रहने वाले लोगों को लगता था कि लखनऊ में बैठी सरकार उनकी समस्याओं, जैसे- सड़क, बिजली, पानी, स्कूल और रोजगार, पर ध्यान नहीं देती। अपनी अलग पहचान, संस्कृति और विकास के लिए वे सालों से एक अलग ‘उत्तराखंड’ राज्य की मांग कर रहे थे।
इसी मांग को लेकर अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए, 2 अक्टूबर 1994 को दिल्ली में एक बड़ी रैली रखी गई थी। उत्तराखंड के कोने-कोने से हजारों लोग, जिनमें पुरुष, महिलाएं और बुजुर्ग भी शामिल थे, बसों में भरकर बड़े जोश और उम्मीद के साथ दिल्ली के लिए निकले। वे शांति से प्रदर्शन कर अपनी मांग सरकार तक पहुंचाना चाहते थे।
1 अक्टूबर की रात जब आंदोलनकारियों का यह काफिला उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में रामपुर तिराहा के पास पहुँचा, तो पुलिस ने भारी बैरिकेडिंग लगाकर उनका रास्ता रोक दिया।

जब आंदोलनकारियों ने आगे जाने की कोशिश की, तो पुलिस और उनके बीच बहस शुरू हो गई। माहौल बिगड़ने लगा और कुछ ही देर में स्थिति तनावपूर्ण हो गई।
इसके बाद पुलिस ने जो किया, वह किसी भयानक सपने से कम नहीं था। उन्होंने निहत्थे लोगों पर बेरहमी से लाठियां बरसानी शुरू कर दीं। जब लोग इधर-उधर भागने लगे, तो उन पर गोलियां भी चलाई गईं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस गोलीकांड में 7 आंदोलनकारी शहीद हुए थे।

सबसे शर्मनाक और दर्दनाक घटना महिलाओं के साथ हुई। पुलिस की हिंसा से बचने के लिए कई महिलाएं अपनी जान बचाने के लिए पास के गन्ने के खेतों में छिप गईं। आरोप है कि पुलिसकर्मियों ने उन महिलाओं को खेतों में ढूंढ-ढूंढकर उनके साथ छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे घिनौने अत्याचार किए। यह सब उस 2 अक्टूबर को हो रहा था, जिस दिन पूरा देश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को याद करता है, जिन्होंने हमेशा अहिंसा का पाठ पढ़ाया। इस क्रूर घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया।

इस कांड ने उत्तराखंड के लोगों के गुस्से और संकल्प को और भी मजबूत कर दिया। यह घटना अलग राज्य के आंदोलन के लिए एक प्रतीक बन गई।
आखिरकार, छह साल के और लंबे संघर्ष के बाद, 9 नवंबर 2000 को वह सपना सच हुआ और ‘उत्तराखंड’ एक अलग राज्य बना। आज का दिन उत्तराखंड के लोगों को यही याद दिलाता है कि इस राज्य की नींव में कितने ही गुमनाम नायकों का पसीना, आंसू और खून मिला हुआ है।



