सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कोर्ट में सुनवाई के दौरान अहम फैसला किया है और कहा कि “अमान्य विवाह” से पैदा हुए बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति में हिस्सा पाने के हकदार हैं।

कोर्ट ने कहा कि ऐसे बच्चों को वैधानिक रूप से वैधता दी गई है और उन्हें माता-पिता की संपत्ति में पूरा हिस्सा मिलना चाहिए।

हालांकि, कोर्ट ने साफ कहा कि यह कानून हिंदू लोगों पर मान्य है यानी कि केवल हिंदू उत्तराधिकार कानून के अनुसार अधिकारों का दावा कर सकते हैं।गौरतलब है कि यह अदालत के पहले के निष्कर्षों को पलट देता है, जिसमें कहा गया था कि “अमान्य विवाह” से होने वाले बच्चों को केवल अपने माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति पर अधिकार हो सकता है, न कि पैतृक संपत्ति पर

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ 2011 के एक मामले में दो-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें कहा गया था कि “अमान्य विवाह” से बच्चे अपने माता-पिता की संपत्तियों को प्राप्त करने के हकदार हैं, चाहे वे स्व-अर्जित हों या पैतृक।

गौरतलब है कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 3-न्यायाधीशों की पीठ रेवनासिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन (2011) मामले में दो-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के खिलाफ एक संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें कहा गया था कि शून्य/अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चे अपने उत्तराधिकार के हकदार हैं।

मामले में मुद्दा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 16 की व्याख्या से संबंधित है, जो अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान करता है। धारा 16(3) में कहा गया है कि ऐसे बच्चे केवल अपने माता-पिता की संपत्ति के हकदार हैं और अन्य सहदायिक शेयरों पर उनका कोई अधिकार नहीं होगा।

मामले में मुद्दा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 16 की व्याख्या से संबंधित है, जो अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान करता है। धारा 16(3) में कहा गया है कि ऐसे बच्चे केवल अपने माता-पिता की संपत्ति के हकदार हैं और अन्य सहदायिक शेयरों पर उनका कोई अधिकार नहीं होगा।

पीठ ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 के अनुसार, हिंदू मिताक्षरा संपत्ति में सहदायिकों के हित को उस संपत्ति के हिस्से के रूप में परिभाषित किया गया जो उन्हें आवंटित किया गया होता यदि संपत्ति का विभाजन ठीक मृत्यु से पहले हुआ होता।

शून्यकरणीय विवाह कानून या गैरकानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं है और इसे डिक्री के माध्यम से रद्द किया जाना चाहिए।

बता दें कि न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) जीएस सिंघवी और एके गांगुली की खंडपीठ ने अपने 2011 के फैसले में धारा 16(3) में संशोधन का सार में कहा था कि ऐसे रिश्ते में बच्चे के जन्म को माता-पिता के रिश्ते से स्वतंत्र रूप से देखा जाना चाहिए। ऐसे रिश्ते में पैदा हुआ बच्चा निर्दोष है और उन सभी अधिकारों का हकदार है जो वैध विवाह से पैदा हुए अन्य बच्चों को दिए जाते हैं।

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