जन आंदोलनों की एक लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने देश और सामाजिक जीवन को हजारों-हजार साभमाजिक कार्यकर्ता, राजनीतिक कार्यकर्ता और राजनेता दिये हैं। रचनात्मक जन आंदोलन हों या आंदोलनात्मक जन आंदोलन हों, पहले वैचारिक द्वंद रहता था कि इनमें से कौन सा जन आंदोलन है जिसका सहारा पकड़ कर सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ा जाना चाहिए।

मगर आज सभी जन आंदोलन धीरे-धीरे सो गये हैं या सो रहे हैं। छठे, सातवें, आठवें, नवें व दशवें दशक तक छात्र आंदोलनों ने देश को राजनीतिक नेताओं की एक नहीं बल्कि दो-दो, तीन-तीन पीढ़ियां दी। इन लोगों ने देश की राजनीति व सार्वजनिक विमर्श को बड़ी गहराई से प्रभावित करने का काम किया, मुझ जैसे लोग उसी राजनीति की उपज हैं‌।

आज छात्र आंदोलन इतिहास की बात हो गये है, कभी कोई छुट-पुट कन्हैया कुमार जैसे लोग छात्र आंदोलन से निकलकर राजनीति में अपना मुकाम बना रहे हैं। छात्र आंदोलनों पर शोध ग्रंथ लिखा जा सकता है। आज उत्तराखंड में भी छात्र आंदोलन थका-थका सा दिखाई दे रहा है।

आठवें दशक में जब मैं भारत की संसद में पहुंचा तो उस समय श्रम क्षेत्र के एक से एक बड़े दिग्गज महारथी आंदोलनकारी भारत के संसद में शोभायमान थे। यह लोग घुटने अड़ा-अड़ा कर के मजदूरों और कर्मचारियों, श्रमिकों के लिए लड़ते थे, संसद में बहसें होती थी, प्रश्न उठते थे चर्चाएं होती थी। यहां तक कि मजदूरों के प्रश्न पर संसद में काम रोको प्रस्ताव तक आते थे। आज संसद में मजदूरों और श्रमिकों के सवालों पर कभी कोई बहस नहीं हो पा रही है। संसद से बाहर भी ऐसा लग रहा है जैसे श्रम आंदोलन एक लंबी छुट्टी में चला गया हो। मेरा लगभग 14 साल का, देश के श्रम आंदोलनों के साथ बहुत निकट का संबंध रहा। इस कालखंड में यदि मैं कहूं कि मैंने बहुत सीमा तक देश के श्रमिकों और कर्मचारियों के आंदोलनों को प्रभावित करने का काम किया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज भी श्रम जगत में मजदूरों की समस्याओं पर विचार करने के लिए एक से एक अनुभवी, कर्मठ लोग उपलब्ध हैं। मैं उदाहरण के लिए इंटक के सुप्रीमो संजीवा रेड्डी जी नाम लेना चाहूंगा, वह अपने आप में श्रम जगत की एक संस्था हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि एक जागर उत्तराखंड में श्रमिक आंदोलन की लगाऊं, क्योंकि आज जितना शोषण श्रमिकों का हो रहा है वह देखकर मेरी बूढ़ी होती बाहें भी फड़क रही हैं। मनमाने तरीके से कर्मचारियों को निकाल दिया जा रहा है। जो राज्य कर्मचारी हैं मैं उनके आंदोलन की बात नहीं कर रहा हूं, वहां तो थोड़ी बहुत कभी-कभी कुश्ती होती रहती है और कभी मिली-जुली कुश्ती भी होती है। लेकिन मैं ब्लू काॅलर्स श्रमिकों की बात कर रहा हूं। आज यूनियन बनाने का प्रयास करिए तो आपको नौकरी से निकाल दिया जाता है, पहले तो रजिस्ट्रेशन ही नहीं होगा। ऐसा लगता है जैसे श्रम विभाग भी श्रमिक कल्याण के बजाय फैक्ट्री कल्याण के प्रतीक बन गया है। कहा जा रहा है कि कहीं आपने कुछ मांगे उठा दी तो आपकी खैरियत नहीं, आपकी छटनी हो जाएगी‌। आज हालात यह हैं कि हर महीने फैक्ट्रियां बंद हो रही हैं, न सरकार चेत रही है न सड़कों पर लोग निकल रहे हैं, लोगों ने नौकरी छूटने को नियति मान लिया है। आश्चर्य की बात है कि श्रम कानूनों में वर्तमान सरकार द्वारा लाये गये बुनियादी परिवर्तनों के खिलाफ देश का श्रम जगत सड़कों पर नहीं दिखाई दे रहा है, “इंकलाब जिंदाबाद और जो हमसे टकराएगा चूर-चूर हो जाएगा” के नारे अब सड़कों पर नहीं गूंजते हैं। मुझे यह कहते हुए गहरी निराशा हो रही है कि वर्ष 2023 इस मामले में सबसे बड़ा अपराधी सिद्ध हुआ है। देश के अंदर भूमिहीन आंदोलनों ने समय और राजनीति की दिशा को मोड़ने का काम किया है। आज भूमिहीनों की बात सार्वजनिक विमर्श से गायब हो चुकी है। मुझे पिछले 8-10 वर्षों के अंदर कोई भूमिहीन आंदोलन हुआ हो इसका स्मरण नहीं है। एक समय था जब भूमिहीन जगह-जगह मोर्चा लगाकर बैठते थे। जमीनों की हदबंदी की लड़ाई को लड़ने के लिए ऐसे संगठन आगे आते थे। जो भूमि सरकारी हैं वह हमारी है, यह भूमिहीनों का प्यारा नारा हुआ करता था। अपने छात्र जीवन के प्रारंभिक दिनों में मैं भूमिहीनों के आंदोलन के साथ निकट से जुड़ा रहा। मेरे पहले राजनीतिक गुरु स्व. रामलाल जी, स्व. श्री सुशील कुमार निरंजन जी भूमिहीन आंदोलनों के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। श्री भवानी राम जी, श्री धरम सिंह, श्री गोपाल रामदास सहित सभी लोगों ने कई स्थानों पर बंजर वन भूमि पर भूमिहीनों के कब्जे करवाये और उनके मोर्चे निकाल कर शासन के ऊपर दबाव बनाने का काम किया। जरा सा और बड़ा हुआ तो बिंदुखत्ता भूमिहीन आंदोलन के साथ मुझे जुड़ने का सौभाग्य मिला। आज का आधुनिक बिंदुखत्ता इन्हीं भूमिहीन संघर्षशील लोगों के संघर्ष का परिणाम है। दर्जनों ऐसे गोट और खत्ते हैं जहां आज भी भूमिहीन विशेष तौर पर काबिज हैं और उनका संघर्ष जारी है। इन खत्तों और गोटों को बसाने में श्री गोपाल रामदास जो उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी रहे और स्व. रामलाल जी, स्व. श्री सुशील कुमार निरंजन जी, श्री भवानी राम जी, श्री धरम सिंह, श्री प्रयाग दत्त भट्ट आदि इन सबका अभूतपूर्व योगदान था। उत्तराखंड में भूमिहीनों को भूमि मिले यह राजनीतिक सोच का हिस्सा था, जो आज नहीं रह गया है। देश में नक्सलवाड़ी से लेकर आंध्र प्रदेश तक भूमिहीन आंदोलन की वैचारिक गूंज ने देश को आंदोलित करने का काम किया था, आज भी छुट-पुट नक्सल आंदोलन जिंदा हैं। मगर अब इसे राजनीतिक समस्या के बजाय कानून व्यवस्था के रूप में देखा जाने लगा है। खादी ग्राम उद्योग, हस्तशिल्प की सोच पर आधारित सर्वोदय आंदोलन गांधी जी की रचनात्मक विचारधारा का जीवांत उदाहरण है। श्री विनोबा भावे जी ने इसके साथ भू-दान आंदोलन को भी जोड़ा था। पहले कतुवा कातते हुए सैकड़ों ऐसे रचनात्मक कार्यकर्ता मिल जाते थे जो ग्रामोदय और स्वालंबन की गांधीवादी विचारधारा के मूर्तमान रूप थे। इसी प्रकार श्रमदान आंदोलन, शिक्षा उन्नयन आंदोलन के रचनात्मक रूप भी सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करते रहते थे। मुझे इस बात का फर्क है कि मैंने छात्र जीवन से लेकर के संसद सदस्य और उसके बाद राजनीति में महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान होते हुए भी भूमिहीनों के आंदोलन के साथ-साथ इन सभी रचनात्मक आंदोलन से अपने को जोड़ा, इसे मैं अपनी सार्वजनिक जीवन की एक बड़ी उपलब्धि मानता हूं। जिस तरीके से व्यक्ति पीएचडी के बाद डिफिल करना चाहता है तो मैं यह समझता था कि मैं भी अपने सार्वजनिक जीवन की सार्थकता को बढ़ाने का काम कर रहा हूं। किसान आंदोलनों ने समय-समय पर देश, सत्ता व राजनीति को झकझोरने का काम किया है। देश में श्री बी.टी. रणदेवे, श्री शरद जोशी, स्व. श्री महेंद्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेता हुये हैं जिन्होंने अपने कालखंड में किसानों के हितों की रक्षा के लिए सत्ता को हिलाने का काम किया। इधर पिछले एक-डेढ़ वर्षों के अंदर भी बहुत प्रभावशाली किसान आंदोलन हुए हैं। दुनिया का सबसे लंबा किसान धरना दिल्ली के पास हाल-हाल के महीना में ही आयोजित हुआ है, जिसने सत्ता को किसान आंदोलन की उपेक्षा की अपनी भूल को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने के लिए बाध्य किया और मिनिमम सपोर्ट प्राइज की मांग को कानूनी दर्जा देने पर सहमति जताई, लेकिन इधर पिछले सात-आठ महीनों से किसान आंदोलन के मोर्चे पर लगभग चुप्पी साधे हुए हैं। वर्ष 2023 में बड़ी बेकद्री के साथ किसान की आकांक्षा को कुचला है, यह एक अविश्वसनीय स्थिति है। बेरोजगार आंदोलन को लेकर कहा जाता था कि “खाली हाथ सत्ता बदलने का काम करते हैं”, आज खाली हाथ गिड़गिड़ाते हुए सत्ता के सामने झुके-झुके से नजर आते हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि आज देश में जॉब लेस ग्रोथ हैं। गरीब व अमीर की बीच की खाई और विषम तरीके से बढ़ रही है। देश और प्रदेश में बेरोजगारी की वृद्धि दर जिस तेजी के साथ बढ़ रही है वह समाज शास्त्रियों के लिए सर्वाधिक चिंता का विषय होना चाहिए। मुझे नहीं मालूम कि पिछले 1 वर्ष में देश में कहीं भी बेरोजगारों ने कोई बड़ा मोर्चा सरकार के खिलाफ लगाया हो!! बेरोजगारी के खिलाफ हुंकार भरना विपक्ष की औपचारिकता तक सीमित रह गया है। युवाओं के ऐसे कार्यक्रमों में भागीदारी का भाव देश की राजनीति को गतिहीन बना रहा है। उत्तराखंड में भी बेरोजगारी केवल राजनीतिक वक्तव्यों तक सीमित रह गई है। वर्ष 2023 में युवा रोजगार आंदोलन के मोर्चे पर लगभग सन्नाटा सा पसरा पड़ा है। आज से एक-डेढ़ दशक पहले तक लघु व्यापार जगत में आंदोलन की हुंकारें सुनाई पड़ती थी, छोटे लघु व्यापारियों के आंदोलन सार्वजनिक जीवन में गरमाहट पैदा करते रहते थे। आज जीएसटी से पीड़ित व्यापारियों सहित सरकारी नीतियों से कुप्रभावित उद्यमियों ने चुप्पी सी साध ली है। बढ़ती महंगाई को लोगों ने आज एक आवश्यक सरकारी शिष्टाचार मान लिया है। ———–तेरे साधन में, बर्तन बिक गये राशन में। जैसे नारों से गूंजायेमान होती सड़कें, अब धार्मिक जुलूसों का स्वागत करती हुई दिखाई देती हैं। धर्म के बढ़ते विमर्श ने मंहगाई, महिला अत्याचार, दलित अत्याचार और बढ़ते हुए भ्रष्टाचार को केवल नेताओं के यदा-कदा प्रकाशित होने वाले वक्तव्यों तक सीमित कर दिया है, जिस प्रकार पिछले 1 वर्ष में महिला उत्पीड़न और दलित उत्पीड़न की घटनाएं बड़ी हैं, मुझे उत्तराखंड जैसे संवेदनशील राज्य की समय चुप्पी पर आश्चर्य होता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि जैसे वर्ष 2023 में सत्ता से सांठ-गांठ कर ली हो कि आप कुछ भी करो मैं चुप्पी साधे रहूंगा। सत्ता को चाहिए कि वह इस अप्रत्याशित संयोग के लिए वर्ष 2023 को धन्यवाद दें। मगर विपक्ष को चाहिए कि वह नये सिरे से अपने को लामबद्ध करे और 2023 में पसरे इस सन्नाटे को तोड़े। श्री राहुल गांधी जी ने भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से एक जबरदस्त जन आंदोलन पैदा किया था, मगर समाज के उपरोक्त विभिन्न क्षेत्रों की चुप्पी ने 2024 के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। जन आंदोलन, लोकतंत्र की शक्ति है। राष्ट्रीय जीवन की गतिशीलता के ज्वलंत उदाहरण आज जब हम वर्ष 2023 को विदा कर रहे हैं तो वर्ष 2024 के लिए हम में से प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए भी एक आन्दोलनात्मक भूमिका का चयन करना चाहिए। श्री राहुल गांधी और कांग्रेस भारत न्याय यात्रा के माध्यम से अपनी भूमिका का खाका देश के सम्मुख रख चुकी है। मगर आपको, हमको भी एक खाका अपने-अपने दायरे में खींचना है और वर्ष 2023 को अलविदा कहते हुये वर्ष 2024 का स्वागत करना है, यहीं से बदलाव आयेगा, आप और हम उसके साक्षी बनेंगे। ।। जय हिन्द।। (साभार फेस बुक हरीश रावत)

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