( दिल्ली सरकार के कला संस्कृति एवं भाषा विभाग द्वारा असंतुलित मापदंड कर आमंत्रित करने से साहित्यकारों में उपजा रोष, आक्रोश के स्वर‌ बुलंद)

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हाल में दिल्ली सरकार के कला संस्कृति एवं भाषा विभाग द्वारा आयोजित गढ़वाली, कुमाऊनी, जौनसारी और हिन्दी साहित्यकार के चयन ने एक चर्चा और विरोध का वातावरण उत्पन्न कर दिया। कुछ हुआ यूं कि कार्यक्रम में तीस साहित्यकार आमंत्रित किये गये, जिसमें से गढ़वाली भाषा से 21, कुमाऊनी भाषा से 7 जौनसारी भाषा से 2 तथा हिंदी भाषा से सिर्फ एक साहित्यकार को आमंत्रित किया गया।


इस असंतुलन को देख कुमाऊनी साहित्यकारों में रोष उत्पन्न हुआ। इस मनमानी पर आपत्ति आक्रोश प्रकट हुआ। साहित्यकारों का कहना था इस तरह के पक्षपाती रवैये से देवभूमि उत्तराखंड में कुमाऊं मण्डल और गढ़वाल मंडल में मतभेद पैदा किया जा रहा है। जौनसारी और हिंदी भाषा को तो नणन्य कर दिया। इस कार्यक्रम की भनक लगते ही उत्तराखंड के जाने-माने साहित्यकारों की संस्था छंजर सभा अलमोडा़ से जुड़े साहित्यकारों ने अपनी प्रतिक्रिया ग्रुप में पोस्ट की।
इस खबर को हमने प्राथमिकता देते हुए प्रसारित प्रचारित किया ।
अल्मोड़ा में हिंदी दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में भी इस मामले में चर्चा कर कहा गया कि इस प्रकार के वाकये हिंदी भाषा का भी अपमान करते हैं।
कुमाऊंनी , हिंदी, जौनसारी भाषा के सशक्त हस्ताक्षर साहित्यकार रतन सिंह किलमोरिया, श्याम सिंह कुटौला, चन्द्र प्रकाश फुलोलिया, गोविंद बल्लभ बहुगुणा, दीप कार्की रमेश चंद्र पांडेय, ओमप्रकाश फुलारा, डाक्टर कुंदन‌ सिंह रावत, विपिन जोशी, लक्ष्मण नेगी, तारा पाठक, दामोदर जोशी संजय कुमार अग्रवाल आदि ने आपत्ति और आक्रोश व्यक्त किया। साहित्यकारों ने वैसे तो यह हमारे आयोजक साहित्यकारों की कमी मानी जानी चाहिए ‌। वे साहित्यकार चाहे कुमाउनी के हों या गढ़वाली के। भाषा संस्थान हो या भाषा अकादमी । वहां कार्यरत अधिकारियों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए। पता नहीं इस लापरवाही का क्या कारण हैं?यहां उत्तराखंड में भी पुरस्कार वितरण में भी बंदरबांट ही हो रही है। हमारे बीच के लोग ही ठेकेदार बन जा रहे हैं।
जो चिंता का विषय है, यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो इस तरह के आयोजन देवभूमि उत्तराखंड में जातिवाद, क्षेत्रवाद, आदि आदि वाद को जन्म दे, साहित्य समाज में फूट डालने का काम करेंगे

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