“( डाक्टर मोती प्रसाद साहू)
एक मनौवैज्ञानिक अनुभव “हां तो बच्चों लाओ अपना- अपना होमवर्क “ट्यूशन शुरू करने के पहले गुरु जी ने बच्चों से कहा।”लीजिए गुरु जी ” कहते हुए सभी ने सबने अपने- अपने होमवर्क खोलकर रख दिए।
गुरु जी अगला पाठ शुरू ही करने वाले थे कि सभी ने एक स्वर में बोला -” कहानी…”दरअसल गुरु जी पढ़ाने के पहले रोज बच्चों को एक कहानी सुनाया करते। इसके पीछे उनका एक उद्देश्य व्यावहारिक ज्ञान भी देना था ।
“तो सुनो-” किसी गांव में एक महिला रहा करती थीं। उसका कोई उनका सम्बन्धी नहीं था। वय में प्रौढ़, विचार से प्रवर , उचित- अनुचित के भेद में निष्णात प्रौढ़ा की पहचान थी। गांवों में धार्मिक अनुष्ठान आदि समय- समय पर सम्पादित होते रहते हैं। जिसमें किसी एक की अग्रणी भूमिका होती है।
गांव में यह दायित्व उन्हीं प्रौढ़ा के पास ही था। गांव में बाल हों अथवा युवा, स्त्री हों या पुरुष, सभी ‘बुआ’ इस संज्ञा से उन्हें सम्बोधित करते। बाजार अथवा अस्पताल जैसी जगहों के लिए महिलाओं की पहली पसंद बुआ ही होतीं। उन्हें विश्वास था कि कोई भी दुकानदार, जेबकतरा अथवा धूर्त; बुआ के सामने टिक नहीं सकता।
बुआ भूमिहीन थीं तथा आजीविका के लिए एक गाय पाला करती थीं। दुग्ध आदि विक्रय करके गृहस्थी का सामान क्रय कर लेतीं। समसामयिक शाक -भाजी लोग उन्हें वैसे भी दे देते। गाय के गोबर आदि के बदले गाय के लिए हरा चारा पहुंचा जाते। इस तरह उनका जीवन- यापन होता रहता।कुछ दिनों पहले गलियों में इधर -उधर एक शिशु -बिडाली घूम रही थी। दूध -रोटि आदि मिलने से उनका पोष मानने लगी। बुआ जहां भी आती -जातीं बिडाली छाया की तरह उनके पीछे -पीछे ।
कुछ बड़ा हुई तो घर में रखी कुर्सी -चारपाई पर निडर और पूर्ण अधिकार के साथ विराजने लगी। इस बीच एक घटना घटी। घटना क्या घटी लोक- लाज के डर से किसी युवती ने नवजात कन्या को उपेक्षित स्थान पर रखकर गुप्त हो गयी। बुआ जी प्रकृति से धार्मिक एवं दयालु तो थीं हीं। उन्होंने उस नवजात को पालन हेतु घर ले आयीं।बुआ के यहां उस परित्यक्त कन्या का अपत्य की तरह पालन- पोषण होने लगा।एक बार शीतकाल की गुनगुनी धूप में बैठकर बुआ कन्या को दूध पिला रही थी।
सामने से बैठी बिडाली यह सब एकटक देख रही थी। बुआ जिस दिन से उस कन्या को घर लेकर आयी थीं और उसकी सेवा- सुसुश्रा में संलग्न हो गयी थीं तब से बिडाली स्वयं को उपेक्षित समझने लगी थी। बात सही भी थी। पहले घर में बुआ का प्रेमपात्र एक मात्र बिडाली थी । अब वह प्रेम दो भागों में विभक्त हो रहा था। वह भी आधा- आधा नहीं अपितु सर्वाधिक कन्या के लिए।
बिडाली का गौण होना स्वाभाविक ही था। खैर; इस तरह कन्या को गोंद में लेकर बुआ का दूध पिलाना बिडाली को अच्छा नहीं लग रहा था। उसके मन में एक कुविचार उत्पन्न हुआ। “ यदि यह कन्या आज़ नहीं होती , तो उसके स्थान पर मालकिन की गोंद में मैं होती “ क्या मनुष्य, क्या पशु, बुआ सबको एक नज़र में ताड़ लेतीं। उन्होंने बिडाली के कुत्सित विचारों को तुरन्त भांप लिया ।
“कुत्सित विचार के किसी भी प्राणी को घर में स्थान देना शुभ नहीं “ ऐसा सोचकर निकट पड़ी झाड़ू जोर से बिडाली के उपर चला दिया । मालकिन के अप्रत्याशित व्यवहार को देखकर वहां से पलायन करना ही उचित समझा। अनधिकार चेष्टा कभी सुखद नहीं होती।(सभी बच्चे एकाग्रचित्त होकर अगले पाठ के लिए तैयार थे।)
