(राजीव लोचन साह का ईसवी वर्ष २०२४पर लिखा लेख)।

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स्वागत है ईसवी सन् 2024 तुम्हारा !यह तो रिवाज ही है कि हर जाने वाले साल को यादों की गठरी के साथ थोड़ा भावुक होकर विदाई दी जाये और नयी उम्मीदों के साथ आने वाले साल का इन्तज़ार किया जाये। इन 47 सालों में ऐसा प्रायः हुआ है कि हमने उम्मीद की कि आने वाला वर्ष गये वाले से बेहतर होगा, परन्तु बाद में पीछे मुड़ कर पीछे देखा तो पाया कि इससे तो पहले वाला ही बेहतर था।

एक वाक्य में कहें तो इन तमाम सालों में ऊपरी तौर पर हमने भले ही बहुत सारी उपलब्धियाँ प्राप्त की हों, एक लोकतंत्र के रूप में हमने देश का क्षरण होते हुए ही देखा।हो सकता है कि यह भ्रान्ति हो।

मगर यह इसलिये हुआ कि हमने देश के लिये बड़े-बड़े सपने देखे थे और उन्हें पूरा होते हुए देखना चाहते थे। नैनीताल समाचार का प्रकाशन शुरू होने के पीछे यही सपना था। उस वक्त हम इन्दिरा गांधी की इमर्जेंसी से उबर रहे थे और सपना देख रहे थे कि इस ‘दूसरी आजादी’ (अपने पहले सम्पादकीय में हमने यही कहा था) में सब कुछ अच्छा हो जायेगा। इन्दिरा गांधी ने जो कुछ नष्ट-भ्रष्ट किया है, वह सब इतिहास की बात हो जायेगी। मगर राजघाट में गांधी की समाधि पर शपथ लेने वाले जनता दल के सूरमाओं ने दो-तीन साल में ही सब कुछ चौपट कर दिया।

जनता को लगा कि इस बन्दर सेना से तो इन्दिरा गांधी बेहतर थीं, और इन्दिरा गांधी दुबारा सत्ता में लौट आयीं। फिर ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ, इन्दिरा गांधी की हत्या हुई, खालिस्तान आन्दोलन के रूप में सिख आतंकवाद पनपा। उधर कश्मीर में भी पाकिस्तान के प्रभाव से आतंकवादी गतिविधियाँ शुरू हुईं और पंडितों ने घाटी से पलायन किया। अपना दाय हासिल करने के लिये उठी पिछड़ी जातियों ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिये बड़ा आन्दोलन शुरू किया तो देश का राजनैतिक भूगोल बदल गया। उधर कांशीराम ने दलित अस्मिता को नयी धार दी और कालान्तर में बहुजन समाज पार्टी जैसी बेहद ताकतवर पार्टी बन गई।

जनता दल से अलग हुई जनसंघ ने भारतीय जनता पार्टी के रूप में नया अवतार धारण किया और आजादी के बाद अलग-थलग पड़ी हिन्दू साम्प्रदायिकता को नई ऊर्जा और त्वरा दी। हिन्दुत्ववादी सोच देश की मुख्यधारा में प्रवेश कर गया। इस बीच देश के एक और प्रधानमंत्री, राजीव गांधी की हत्या हो गई। कारगिल में हमें पाकिस्तान के साथ एक और युद्ध लड़ना पड़ा।

असम में छात्रों-युवाओं ने क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल पर आन्दोलन कर प्रदेश की सत्ता प्राप्त की तो हमने भी मुजफ्फरनगर जैसा घाव खाकर अपना एक प्रदेश हासिल कर लिया।हमारा मन्तव्य सिलसिलेवार इतिहास लेखन का नहीं है। हम नये साल की पूर्व संध्या पर पिछली लगभग आधी सदी में घटी उन कुछ घटनाओं का जिक्र भर कर रहे हैं, जिन्होंने कभी हमारे मन में आशा जगायी, परन्तु ज्यादातर निराश ही किया।

हम आजाद भारत में पैदा हुए लोग हैं। इधर उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देश में नया संविधान लागू हुआ और उधर हमने आँखें खोलीं।

एक हिन्दू के रूप में जन्म लेने के कारण घर में वही माहौल था, जो हिन्दू घरों में तब होता था। हर सुबह राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करना होता था और शाम ढलते ही घर लौटने पर हनुमान चालीसा का। सारे त्यौहार बड़े उल्लास से मनाये जाते थे। एक बार बाबा नीब करौरी महाराज के हमारे घर आकर रहने की याद है। लेकिन कट्टर हिन्दू होने के बाद भी तब कभी सोचा नहीं था कि धर्म कभी राजनीति करने का जरिया बन सकता है।

यह हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान के विपरीत था। हम जानते तो थे कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। लेकिन उस अयोध्या में मन्दिर है या मस्जिद, ये हमारे समाज में कोई नहीं जानता था। इसकी जरूरत ही नहीं थी। क्योंकि राम थे, हमारी आस्था में थे, उनकी रामनवमी थी, उनकी रामलीला थी और उतना पर्याप्त था। आज ये मर्यादा पुरुषोत्तम, ‘मिस्टर कूल’ रामचन्द्र धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाये, क्रोधाग्नि में आँखें तरेरे पवनसुत हनुमान के साथ हमारी मानसिकता में रच-बस गये हैं।

‘जै जै सियाराम’ का मृदुल, रससिक्त अभिवादन ‘जय श्री राम’ के भीषण, आतंककारी नारे में तब्दील हो गया है। हमें राम रक्षा स्तोत्र और हनुमान चालीसा में बताये गये हमारे राम और हनुमान हमारे देखते-देखते क्यों इतना बदल गये होंगे ?परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हमें अच्छी लगें या बुरी, चीजें हमेशा बदलती हैं। हमने अपनी ईजा (माँ) को चूल्हे पर लकड़ी की आग में खाना बनाते देखा। जाड़ों की शीत से लड़ने के लिये कोयले के चूरे को गोबर में मिला कर बनने वाले गुबटौल देखे। दस फीट लम्बे एरियल के साथ पन्द्रह मिनट बाद गर्म होकर अपनी चुप्पी तोड़ने वाले वाल्व वाले रेडियो देखे।

काल का पहिया चलता रहा और वह सब बदल गया। वह सब बदलने से हमें असहजता तो हुई, कई बार तकलीफ भी हुई, लेकिन चिन्ता नहीं हुई। यह सब बदलाव हमारे संविधान के भीतर, लोकतंत्र की भावना के अनुरूप हुए थे। लेकिन धर्म का इस तरह बदल जाना और फिर राजनीति के केन्द्र में आ जाना निश्चित रूप से चिन्तित करने लगा।पाँच महीने बाद हमारे देश में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। हिन्दू राष्ट्र की बात पिछले कुछ सालों में कभी दबे-दबे स्वरों में और कभी खुल कर सुनाई दे रही है।

यह कहा जा रहा है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में इस बात का फैसला हो जायेगा कि भारत का मौजूदा संविधानं आगे भी जारी रहेगा या फिर भारत एक हिन्दू राष्ट्र में बदल जायेगा। हमारे देश में एक बड़ी जमात तैयार हो गई है, जो हिन्दू राष्ट्र को संविधान से ऊपर मानने लगी है। परन्तु हमें यही बात चिन्तित कर रही है, डरा रही है। हम नहीं चाहते कि जिस संविधान के साथ हमने आँखें खोलीं, वह हम से छीन लिया जाये। हम जानते भी नहीं कि हिन्दू राष्ट्र होता कैसा है। हमारे साथ ही ब्रिटिश दासता से मुक्त हुआ पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र बना और हमने देखा कि वह हमसे कितना पिछड़ गया है।

टूटने की कगार पर है।तो ईसवी सन् 2024, तुम्हारी गठरी में हमारे लिये क्या है ? क्या तुम एक ‘सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बनाये रखना चाहते हो या कि भारत को एक हिन्दू राष्ट्र में बदल देना चाहते हो ? कहीं ऐसा न हो कि इन्दिरा गांधी की इमर्जेंसी की अंधेरी रात खत्म होने पर जो पारी हमने शुरू की थी, तुम उसे एक नयी तानाशाही लाकर असमय ही खत्म दो।बताओ तो ईसवी सन् 2024!बाकी साल भर के लेखे-जोखे में क्या और कितना बतायें ? 2022 में शुरू हुआ रूस-उक्रेन युद्ध किसी नतीजे पर पहुँचा भी नहीं है कि हमास के हमले का बहाना लेकर इस्राइल ने गाजा में अपनी पाशविक कार्रवाही शुरू कर दी है। दुनिया के तमाम देश इस या उस पाले में खड़े होकर तमाशबीन बने बैठे हैं। देश के भीतर हमने पूर्वात्तर राज्य मणिपुर को हताशा में जाते देखा। हमने चन्द्रयान के चन्द्रमा में उतरने का उल्लास भी मनाया तो क्रिकेट विश्व कप में अनपेक्षित हार का गम भी झेला।

उत्तराखंड का तो शायद जन्म ही किसी बुरी साइत में हुआ था। इसकी स्थापना ज्योतिषियों से पूछ कर 9 दिन के लिये खिसकायी क्या गई कि तभी से लूट-खसोट का सिलसिला चालू हो गया। अब तो हम देश के नफरती प्रदेशों में भी अव्वल हो गये हैं। यह साल भी जोशीमठ के धँसने की खबरों के साथ शुरू हुआ और सिलक्यारा की सुरंग में 41 मजदूरों के फँसने और अत्यन्त सौभाग्यवश बच निकलने की घटना के साथ खत्म।

साल के आखिरी महीने में दो नौजवानों के संसद में कूद जाने की अनोखी घटना घटी। मगर वाजिब सवाल हम पूछते नहीं हैं। सिलक्यारा में हम मजदूर निकल पायेंगे या नहीं में ही उलझे रहे। हमने यह नहीं पूछा कि यह सुरंग क्यों बनी, इसकी क्या जरूरत थी, क्या यहाँ की परिस्थितियाँ इसके बनने के लिये अनुकूल थीं, सुरंग बनाने वाली कम्पनी को दंडित क्यों नहीं किया गया ? संसद में घुसपैठ के मामले में हमने यह नहीं पूछा कि ये नौजवान इतने हताश क्यों हो गये कि उन्हें इतना खतरनाक कदम उठाना पड़ा ?

क्या देश की तरुणाई आज इसी हालत में तो नहीं है ?नहीं, हम ऐसे सवाल नहीं पूछते। कम से कम 2023 में तो हमने नहीं पूछे।तो एक साल जा रहा है और एक जा रहा है।….हमें तुम्हारा इन्तज़ार है ईसवी सन् 2024।(साभार राजीव लोचन साह, नैनीताल सोशियल मिडिया फेस बुक)

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