( मूल निवास, भू कानून के हितों का संरक्षण व‌ हक हकूक की लड़ाई क्षेत्रीय दल , संगठन ही जीता सकते हैं, भाजपा, कांग्रेस सरकार नहीं ,)

मूल निवास और भू कानून की मांग को लेकर 24 दिसम्बर को हुई सफल महारैली ने राज्य में क्षेत्रीय अस्मिता से हो रहे खिलवाड़ के खिलाफ जन आक्रोश को सामने ला दिया है। अब इस राज्य की सकारात्मक और ईमानदार ताकतों का कर्तव्य है कि जनभावना के अनुरूप राज्य में सामाजिक/ राजनीतिक परिवर्तन का रोडमैप तैयार हो। उत्तराखंडी सोच की सभी ताकतों से एकजुट होकर इस राज्य की अवधारणा को साकार करने के लिए काम करने की आवश्यकता है। उत्तराखंड और हिमालय देश और दुनिया की धरोहर है और इसके साथ हो रही लूटखसोट और छेड़छाड़ के गंभीर परिणाम सामने आ रहे हैं। इस हिमालयी राज्य को राज्य के निवासियों के हितों की रक्षा करते हुए बचाने की जरूरत है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भाजपा व कांग्रेस की राज्य व हिमालय विरोधी नीतियों ने उत्तराखण्ड व यहाँ के निवासियों को बरबादी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है, जिस कारण जनता में भारी असंतोष व्याप्त है। राज्य के प्राकृतिक संसाधनों, जल, जंगल, जमीनों पर पूंजीपतियों और माफियाओं व छोटी-बडी़ कंपनियों का कब्जा कराने में राजनेताओं और नौकरशाहों की बड़ी भूमिका है, जिसे केवल सशक्त राजनीतिक हस्तक्षेप से ही रोका जा सकता है।एक तरफ तो‌ भाजपा, कांग्रेस सरकार सशक्त भू कानून व मूलनिवास की बात करती है, दूसरी तरफ मूल निवासी के हक हकूक को लूटने‌ की योजनाओं का विकास का नाटक कर रही है।भाजपा, कांग्रेस सरकार के सांसद , विधायकों ने तो उत्तराखंड की अवधारणा कीसमझ है, न ही ये उत्तराखंड के निवासियों के प्रति इमानदार व वफादार है। सदियों से हिमालयी क्षेत्र में रहने वालों के हितों की रक्षा किये बिना हिमालय को बचाया नहीं जा सकता। उत्तराखंड में राज करने वाली भाजपा, कांग्रेस सरकारों ने भूमिसुधार और बंदोबस्त जैसे सबसे जरूरी काम को पूरा नहीं किया है। और‌ बातें डिजिटल इंडिया की होती है। राजस्व खाता खतौनी, नगर‌पालिका नांमाकन, कृषि भूमि को अकृषिक भूमि घोषित करने, जिला स्तरीय विकास प्राधिकरण, आये दिन बिजली, पानी की दरों में वृद्धि के नाम पर उत्तराखंड़ियों का शोषण का जीता जागता उदाहरण है। राज्य आंदोलन की १९५० से चल रही लड़ाई ‌ व‌अवधारणा को भाजपा कांग्रेस ने‌कभी नहीं समझा। म़ंडल‌,कमीशन उत्तराखंड आरक्षण , अविभाज्य उत्तर प्रदेश‌ में जन विरोधी शासनादेश को कभी नहीं भूलाया जा सकता है। मूल निवास स्थायी निवास की व्यवस्था में मूल उत्तराखंड निवासी का शोषण व स्थायी निवास का १५ साल निवासी होना भी भाजपा कांग्रेस की कथनी करनी में फर्क का जीता-जागता उदाहरण हैं। उत्तराखंड को देवभूमि बताने वाले राष्ट्रीय दलों ने लगातार इस राज्य को संविधान के आर्टिकल 371 के प्रावधानों के अन्तर्गत संरक्षण देने के प्रस्ताव पारित करने का साहस तक नहीं किया। दूसरी ओर विधानसभा सीटों का परिसीमन कर पहाड़ों की राजनीतिक ताकत को जानबूझ कर कमजोर करने का कृत्य किया है। यदि भाजपा सरकार उत्तराखंड के प्रति ईमानदार है तो सरकार द्वारा कृषि भूमि की खरीद के असीमित अधिकार को रद्द क्यों नहीं किया जा रहा है? जल, जंगल, जमीन पर जनता के अधिकारों में लगातार की जा रही कटौती को वापस, लेने, बेनाप के नाम पर, वर्गीकृत भूमि को मैदान की भांति ग्राम समाज को सौंपने, बनाधिकार कानून को सही तरीके से लागू करने की तत्काल व्यवस्था करनी चाहिए। सरकार द्वारा भूमाफियाओं और प्रभावशाली लोगों को आवंटित जमीनों की अनुमतियों को लेकर श्वेत पत्र जारी करने व दुरूपयोग करने वालों की जमीनें तत्काल जब्त करने की आवश्यकता है। जहाँ एक ओर गरीबों/ आम लोगों पर अतिक्रमण के नाम पर बुलडोजर चलाए जा रहे हैं, वहीं इन प्रभावशाली लोगों को गुण्डागर्दी की खुली छूट दी जा रही है। जिसका ज्वलंत उदाहरण डांडा कांडा, अल्मोड़ा का प्लीजेंट वैली है, जिसकी आपराधिक गतिविधियों से पुलिस प्रशासन व न्यायपालिका भी त्रस्त है। अब भी वक्त है उत्तराखंड के सच्चे निवासी एक हो‌ संगठित हो एक बैनर‌ तले आ सर्व दलीय संघर्ष समिति का राज्य आंदोलन याद कर‌ हक हकूक के लिये आंदोलन करें। अल्मोड़ा के परिप्रेक्ष्य में लिया जाय तो उपभोक्ता जाग्रति एवं कल्याण समिति के बैनर‌ तले मूल /स्थायी निवास प्रमाणपत्र के आंदोलन को देख अविभाज्य उत्तर प्रदेश सरकार ने शासनादेश तो वापस लिया , लेकिन तीस साल‌‌ के लम्बे सफ़र के बाद‌ कोई स्पष्ट कानून नहीं आये। अल्मोड़ा में सर्वदलीय संघर्ष समिति के बैनर‌ तले का राज्य आंदोलन अविस्मरणीय है। अल्मोड़ा के राजकीय इंटर कॉलेज में तीस हजार के जन सैलाब में‌‌ पूर्व राज्यपाल बी डी पांडे पहली बार प्रथक राज्य के लिये‌ बोले थे। बहुत कुछ है अभी अतीत का इतिहास शेष फिर।

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