(सनातन हिंदू धर्म को क्या डेंगू, मलेरिया की तरह खत्म कर देना चाहिए। प्रो०वार्डवानी के साथ हुयी वार्ता को जानिये।)
सनातन धर्म को डेंगू और मलेरिया की तरह ख़त्म कर दिया जाना चाहिए” इस सम्बन्ध में भारत के विद्वान स्कॉलर और प्रसिद्ध अर्थशाश्त्री प्रोफेसर एम् वी नाडकर्णी द्वारा वैज्ञानिक भाषा विस्तृत प्रत्युत्तर
(प्रश्नोत्तर)
एम वी नाडकर्णी
प्रश्न-1: “सनातन धर्म को डेंगू और मलेरिया की तरह ख़त्म कर दिया जाना चाहिए” उदयनिधि स्टालिन के इस कथन पर आपकी अभियक्ति क्या है?उत्तर -1: धन्यवाद! सर्वप्रथम , मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि , माननीय उदयनिधि के कथन में गंभीरता की कमी है। सनातन धर्म से उनका तात्पर्य संपूर्ण हिंदू धर्म से हैया, इसके रूढ़िवादी तत्व , जिन्हें वर्तमान में बहुत कम लोग स्वीकार करते हैं?क्या वें इसकी तुलना जाति व्यवस्था विशेषकर अस्पृश्यता से कर रहे हैं? उन्मूलन से उनका क्या अभिप्राय है? जिस धर्म को करोड़ों लोग मानते हों उसे कैसे ख़त्म किया जा सकता है? क्या वह चाहते हैं कि सभी हिंदुओं को जबरन दूसरे धर्म में परिवर्तित कर दिया जाए? क्या यह डीएमके सरकार के एजेंडे में है? उदयनिधि स्टालिन के उक्त कथन में कुछ भी स्पष्ट नहीं है!
प्रश्न-2: सनातन धर्म क्या है? क्या इसका अर्थ रूढ़िवादिता से है? ए-2:, हिंदू धर्म का प्राचीन नाम सनातन धर्म है, – यह नाम स्वयं हिंदुओं द्वारा दिया गया । सनातन धर्म को ही बाहरी लोगों या विदेशियों द्वारा हिंदू धर्म नाम दिया गया है, जो अधिक लोकप्रिय हुआ।ब्रह्माण्डपुराण (II.33.37-38) में सनातन धर्म को इस प्रकार परिभाषित किया गया है: ‘सनातन धर्म की जड़ें द्वेष तथालालच से बचने, तपस्या का पालन, सभी प्राणियों के लिए दया, आत्म-नियंत्रण, शुद्धता, सच्चाई, कोमलता, क्षमाऔर धैर्य में निहित है’। अद्रोहश्चाप्यलोभश्च तपो भूतदया दमः। ब्रह्मचर्यं तथा सत्यं अनुक्रोशः क्षमा धृतिः । सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतद् उदाहृतम् ॥ (ब्र.पु.II.33.37-38)यह तर्क दिया जा सकता है कि यह श्लोक मूल के रूप में समानता को उजागर करता है। लेकिन यह भगवद-गीता के अध्याय 6 के 29वें श्लोक में कही गई बात से कहीं अधिक है, कि एक योगी सभी प्राणियों में स्वयं को देखता है और उन्हें समान मानता है (सर्वत्रसमदर्शनः)। सभी के साथ समान और निष्पक्ष व्यवहार गीता की शिक्षाओं में से एक है, और इसलिए यह सनातन धर्म का एक हिस्सा है।सनातन धर्म की मौलिक विशेषता सभी संस्कृतियों और लोगों का समावेश, सार्वभौमिक भाईचारे का समर्थन करना , संवाद के माध्यम से मतभेदों को हल करने पर जोर देना है। सनातन धर्म के लिए, पूरा विश्व एक परिवार(वसुधैवकुटुंबकम) है । इसके स्वस्तिमंत्र संपूर्ण वैश्विक कल्याण की प्रार्थना करते हैं, न कि केवल इसके अनुयायियों की। अत: यह स्पष्ट है कि सनातन धर्म का अर्थ रूढ़िवादिता से नहीं है। यह उच्च नैतिक आदर्शों का पालन करता है। रूढ़िवादिता का अर्थ है धर्म में कठोरता, लेकिन हिंदू धर्म/सनातन धर्म अत्यधिक गतिशील है।
प्रश्न-3: क्या सनातन धर्म ब्राह्मणवाद से भ्रमित है? क्या हिंदू धर्म का विकास ब्राह्मणों द्वारा किया गया है? क्या इसीलिए तिरुउदयनिधि ने इसके उन्मूलन का आह्वान किया है?उत्तर -3:सनातन धर्म या हिंदू धर्म ब्राह्मणवाद नहीं हैक्योंकि ब्राह्मणवाद जैसा कोई हीधर्म नहीं है। हिंदू धर्म अकेले ब्राह्मणों की रचना नहीं है, अपितुगैर-ब्राह्मणों ने इसे विकसित करने में प्रमुख भूमिका निभाई है।वैदिक और उपनिषदिक ऋषि विभिन्न पृष्ठभूमि और समुदायों से थे, जिनमें सबसे विनम्र स्तर के लोग भी शामिल थे। रामायण की रचना करने वाले वाल्मिकी ब्राह्मण नहीं थे। महाभारत के लेखक व्यास मिश्रित मूल के थे, उनकी माँ एक मछुआरा थीं। संस्कृत के महानतम कवि कवि कालिदास भी ब्राह्मण नहीं थे।पूरे भारत में मध्ययुगीन युग के दौरान भक्ति आंदोलनों का नेतृत्व मुख्य रूप से गैर-ब्राह्मणों ने किया था, और उनके अनुयायी विभिन्न समुदायों से थे। भक्ति आंदोलन जाति-विरोधी थे, और उन्होंने हिंदू धर्म को इतना व्यापक आधार दिया जितना पहले कभी नहीं था। हिंदू धर्म के आधुनिक पुनर्जागरण में स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, श्री अरबिंदो, नारायण गुरु, सत्य साईं बाबा, और माता अमृतानंदमयी आदि गैर-ब्राह्मणों ने अग्रणी भूमिका निभाई। ।पूर्व एवं वर्त्तमान में हिंदू धर्म के अधिकांश अनुयायी गैर-ब्राह्मण हैं। कई गैर-ब्राह्मण समुदायों के पास स्वयं के मठ और स्वामी हैं जो उनके प्रमुख हैं। नारायण गुरु और माता अमृतानंदमयी ने हिंदू धर्म में पुरोहिती के मार्ग को गैर-ब्राह्मणों और महिलाओं के लिए अनावृत्त कर, पुरोहिती पर ब्राह्मणों और पुरुषों के एकाधिकार को समाप्त किया ।
प्रश्न-4: जाति व्यवस्था के लिए हिंदू धर्म को दोषी ठहराना आम बात है। क्या जाति व्यवस्था हिंदू धर्म में अंतर्निहित है? क्या अस्पृश्यता हिंदू धर्म से अविभाज्य है?उत्तर -4: मेरा उत्तर स्पष्ट है। जाति व्यवस्था हिंदू धर्म में अंतर्निहित नहीं हैऔर न ही अस्पृश्यता हिंदू धर्म का हिस्सा है. इसे हिंदू धर्म के उन्मूलन के बिना भी ख़त्म कियाजा सकता है।डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के अनुसार, जाति व्यवस्था का आरम्भ वैदिक काल के अंत में हुआतथाकुछ समय पश्चात बौद्धोत्तर काल में अस्पृश्यता भी उभरी। हिंदू धर्म के इतिहास में एक ऐसा भी चरण था जब न तो जाति व्यवस्था थी और न ही अस्पृश्यता, और हम भविष्य में भी इसी तरह के चरण की कामना करते है ।
2013 में अंग्रेजी में प्रकाशित मेरी पुस्तक, हैंडबुक ऑफ हिंदूइज्म, और इसके कन्नड़ अद्यतन संस्करण, हिंदू धर्म: हिंदू इंदु, 2021 में प्रकाशित में, मैंने जन्म के आधार पर पदानुक्रमित जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता के विरोध को प्रदर्शित करनेके लिए शास्त्रीय साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। “वज्रसूचिका” नामक एक संपूर्ण उपनिषद है, जो जाति व्यवस्था की निंदा करता है। गीता को कभी-कभी जाति के समर्थक के रूप में गलत तरीके से उद्धृत किया जाता है। जबकियह स्पष्ट रूप से कहता है कि वर्ण व्यवस्था योग्यता और व्यवसाय (-गुण और कर्म) पर आधारित है, न कि जन्म पर। वर्ण श्रम या आर्थिक वर्ग का विभाजन है, जबकि जाति जन्म पर आधारित है। दोनों वैचारिक रूप से भिन्न हैं। चूंकि पूर्व-आधुनिक भारत में व्यवसाय अक्सर विरासत में मिलते थे, वर्ण बिगड़कर जाति में बदल गए। हिंदू धर्म का इससे कोई लेना-देना नहीं था।पूरे भारत में धर्मग्रंथों में जाति व्यवस्था को स्वीकार न करने वाले कथनोंके अलावा, भक्ति आंदोलनों के समृद्ध साहित्य ने भी सर्वसम्मति से जाति व्यवस्था का विरोध किया। हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था की निंदा करने वाली कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। मैं ऐसी ही एक किंवदंती का उदाहरण ले सकता हूं।10वीं शताब्दी में भगवान रंगनाथ के अछूत भक्त तिरुप्पनअलवर को मंदिर के रास्ते में खड़े होने के कारण एक पुजारी द्वारा अपमानित किया गया था। पुजारी के लिए मंदिर के दरवाजे नहीं खुले, लेकिन गर्भगृह के भीतर से एक आवाज आई जिसमें पुजारी से अलवर को अपने कंधों पर उठाकर मंदिर की तीन बार परिक्रमा करने के लिए कहा गया। उनके ऐसा करने के बाद ही मंदिर के दरवाजे खुले और तिरुप्पनअलवर को एक महान संत के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। ऐसी अनेक किंवदंतियाँ अन्य राज्यों में भी प्रचलित हैं।प्रश्न-5: मनुस्मृति को अक्सर जाति व्यवस्था के समर्थक के रूप में उद्धृत किया जाता है। क्या मनुस्मृति हिंदू धर्मग्रंथ नहीं है?उत्तर -5: हां, मनुस्मृति जाति व्यवस्था की समर्थक थी और उसने ‘जातियों के मिश्रण’ के खिलाफ कई क्रूर नियम लागू किए थे। लेकिन मनुस्मृति कोकभी भी पवित्र ग्रंथ का दर्जा नहीं मिला। यहां, हमें दो प्रकार के हिंदू ग्रंथों – श्रुति और स्मृति – के बीच अंतर को समझना होगा। वेद और उपनिषद श्रुतियों का गठन करते हैं, जिन्हें पवित्र धर्मग्रंथों का दर्जा प्राप्त हैपरन्तुस्मृतियों को नहीं । स्मृतियों द्वाराइस्लाम में शरीयत की तरह आचरण के नियम निर्धारित किये लेकिन वे अनिवार्य नहीं हैं। मनुस्मृति स्वयं कहती है कि जहां भी श्रुति और स्मृति के बीच विरोध होगा, वहां श्रुति प्रबल होगी। चूँकि श्रुति जाति व्यवस्था का अनुमोदन नहीं करती, इसलिए मनुस्मृति द्वारा इसकी स्वीकृति उसके अपने कथन के अनुसार अमान्य है।मनुस्मृति के आलावाप्राचीन भारत में भी सामाजिक गतिशीलता के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने स्वयं प्राचीन भारत में दलित समुदायों की ऊर्ध्वगामी सामाजिक गतिशीलता के कई उदाहरण दिये हैं जिसमें महर्षि वाल्मिकी दलित समुदाय की उर्ध्वगामी सामाजिक गतिशीलता का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। मतंग रामायण में वर्णित एक प्रतिष्ठित ऋषि थेजो दलित पृष्ठभूमि/समुदाय के अंतर्गत आते थे और राम उन्हें सम्मान देने के लिए उनसे मिलने गए थे। कई शूद्रों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने और सेना में शामिल होने के बाद क्षत्रिय माना जाता था। हमारे इतिहास में कई राजा शूद्र मूल के थे। भक्ति आंदोलन के कई प्रमुख और प्रतिष्ठित संत शूद्र या दलित मूल से आए थे।
इसके अलावा, प्राचीन और मध्यकालीन भारत में दलितों की स्थिति इतनी ख़राब नहीं थी जितनी 19वीं और 20वीं सदी के पूर्वार्ध में थी। ब्रिटिश शासन के दौरान इनकीस्थिति गंभीर रूप से खराब हो गई। ब्रिटिश अभिलेखों पर आधारित धर्मपाल के शोध से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है किब्रिटिश शासन द्वारा राजस्व निर्धारण में वृद्धि और जमींदारी प्रणाली के निर्माण ने किसानों और ग्रामीण श्रमिकों को बुरी तरह प्रभावित किया। हिंदू धर्म और मनुस्मृति का इससे कोई लेना-देना नहीं था। धर्मपाल के अनुसार ब्रिटिश शासन की पूर्व संध्या तकउच्च एवं निम्न जातियों की पोषण की स्थिति और पोशाक में भी बहुत कम अंतर था। अधिकांश गाँवों में स्कूल थे और निम्नजातियों की भी उन तक पहुँच थी।
प्रश्न-6: जाति व्यवस्था कैसे उभरी और कितने समय तक जीवित रही?
उत्तर -6: जाति व्यवस्था सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण उभरी और लंबे समय तक जारी रही। इसने पूर्व-आधुनिक विश्वमें जातियों के बीच शक्ति संतुलन बनाए रखने में मदद की और विशेषज्ञता का लाभ प्राप्त करने के लिए श्रम विभाजन की सुविधा प्रदान की। जाति व्यवस्था उद्देश्य सत्ता को एक जाति या वर्ण में केंद्रित होने से रोकना था। इसके अनुसार ब्राह्मणों को केवल पुजारी बनना, शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन करना था, धन संचय नहीं । उन्हें क्षत्रियों और वैश्यों के दान पर निर्भर रहना पड़ता था। तब यह मानना था कि राजनीतिक शक्ति केवल क्षत्रियों के पास , धन शक्ति वैश्यों के पास , और श्रम शक्ति शूद्रों के पास थी। वर्तमान में आधुनिक युग में ऐसी स्थिति वैध या प्रासंगिक नहीं रह गई है और ये एकाधिकार टूट गए हैं।
एक कठोर जाति व्यवस्था तब तक जीवित रह सकती थी जब तक समाज मुख्य रूप से ग्रामीण चरित्र बना रहा। शहरीकरण के साथ, ‘जातियों के मिश्रण’ को रोका नहीं जा सका और शिक्षा अधिक प्रबलहो गई। जातियों की व्यावसायिक विशेषज्ञता भी टूट गई। हिंदू धर्म में पुरोहिती अब सभी हिंदुओं के लिए समानहै, और कुछ समाचार पत्रों के अनुसारमुस्लिम पुजारी भी हिंदू मंदिरों में सेवा कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जाति अलगाव के अनुष्ठान नियमों की सख्ती भी काफी हद तक टूट गई है।
प्रश्न-7: जातिगत पहचान और चेतना अभी भी क्यों कायम है? जाति विभाजन और अस्पृश्यता को ख़त्म करने के लिए हम क्या कर सकते हैं? क्या इसमें आरक्षण नीति से मदद नहीं मिली?
उत्तर -7: पूर्वसे ही जाति और धर्म के आधार पर विभाजित समाज में, लोकतंत्र की शुरूआत ने जातीय पहचान को मजबूत किया है। प्रत्येक समुदाय राजनीतिक और आर्थिक शक्ति में हिस्सेदारी चाहता है जो कम से कम उनकी आबादी के अनुपात में हो। राजनीतिक और आर्थिक सत्ता में समुदायों के बीच असमानता बनी रहने से असंतोष और संघर्ष की स्थिति पैदा होती है। इस असमानता को में कम करने के लिए गंभीरता से प्रयास करने होंगे।
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातिऔर अन्य पिछड़ा वर्ग जैसे वंचित जातियों की उपेक्षा को ठीक करने,शिक्षा और रोजगार के अवसरों में उनकी हिस्सेदारी में सुधार करने के लिए आरक्षण नीति की आवश्यकता थी। इस नीति ने उनमें से लाखों लोगों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में प्रवेश करने और अपनी स्थिति को सुधारने में मदद की है। आज हम उन्हें कानूनी और चिकित्सा अभ्यास, वैज्ञानिक, प्रोफेसर इत्यादि जैसे अच्छे पदों पर पाते है। राजनीतिक नेतृत्व में उनका काफी अच्छा प्रतिनिधित्व है।
सभी स्तरों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के गंभीर प्रयासों के अभाव में और रोजगार में वृद्धि दर को अधिकतम करने की नीति के अभाव में अकेले आरक्षण नीति प्रभावी नहीं है। रोजगार विहीन विकास की स्थिति आरक्षण नीति को नपुंसक बना देती है। स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के साथ-साथ चिकित्सा देखभाल में भी शिक्षकों के लाखों पद रिक्त हैं, जो नियुक्ति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इससे हमें सेवाओं के साथ-साथ रोजगार वृद्धि में भी नुकसान होता है। मनरेगा जैसे रोजगार गारंटी कार्यक्रम राहत तो देते हैं लेकिन समाधाननहीं। यह वंचितों के लिए ऊर्ध्वगामी सामाजिक गतिशीलता में मदद नहीं करता है। आरक्षण नीति केवल अवसरों को समाप्त करती है; जबकि अधिक महत्वपूर्ण अवसरों की संख्या को बढ़ावा देना है।
यद्यपि आरक्षण नीति वंचित जातियों की अवसरों तक पहुंच में मददके साथ-साथ जाति चेतना और पहचान को और मजबूत करती है। अवसर प्राप्तकरने के बाद, कई लाभार्थी जातिगत चेतना से परे नहीं जाते, बल्कि इसके प्रति जुनूनी हो जाते हैं। जातीय विभाजन दूर नहीं होते, बल्कि ठोस होते जाते हैं। आरक्षण उन लोगों के बीच अभाव और कड़वाहट की भावना भी पैदा कर सकता है जो अवसर खो देते हैं, क्यूंकिउन्हें लगता है कि यह आरक्षण का आनंद ले रही जातियों द्वारा गलत तरीके से अपहरण कर लिया गया है। व्यापक संघर्ष की स्थिति राष्ट्रीय एकता और एकजुटता के लिए अच्छी नहीं है।
इसका उपाय यह है कि आरक्षण नीति को लक्ष्य प्राप्ति पश्चात् चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का निर्णय लिया जाए। आरक्षण नीति को लाभ के लिए क्रीमी लेयर को अयोग्य घोषित कर एक बार में नहीं, बल्कि क्रमिक चरणों में समाप्त करने की आवश्यकता है। एक अनुसूचित जाति के डॉक्टर या इंजीनियर या मंत्री के बेटे या बेटी को आरक्षण का लाभ क्यों मिलता रहना चाहिए? आज आरक्षित जातियों की स्थिति निश्चित रूप से उतनी बुरी नहीं है जितनी 1950 या 1960 के दशक में थी। उनके बीच एक अमीर और शक्तिशाली परत उभरी है जो आरक्षण के लाभ पर एकाधिकार जमा लेती है और अपनी ही जातियों के कम भाग्यशाली लोगों को आरक्षण के लाभ से वंचित कर देती है। क्रीमी लेयर को अयोग्य ठहराने से उनकी ही जातियों के कम भाग्यशाली लोगों को लाभ होता है, और अंततः इस नीति को समाप्त करने में मदद मिलती है। डॉ. बी आर अम्बेडकर का उद्देश्यआरक्षण नीति को हमेशा के लिए कायम रखने का नहीं था, बल्कि उन्होंने इसे केवल एक अस्थायी कदम के रूप में देखा। दुर्भाग्य से, इस परिप्रेक्ष्य को भुला दिया गया है, और अधिक से अधिक जातियों को आरक्षित श्रेणियों में समायोजित करने के लिए आरक्षण की समग्र सीमा को बढ़ाने का प्रयास किया गया है। इससे केवल जातीय विभाजन और कटुता बढ़ेगी। दुनिया के किसी अन्य देश में 50 प्रतिशत की सीमा के साथ भी भारत के समान इतने बड़े पैमाने पर अवसरों का आरक्षण नहीं है।।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% सीमा से अधिक आरक्षण की सीमा बढ़ाने का कोई प्रस्ताव या फैसलानहीं है। यह योग्यता या दक्षता के लिए गुंजाइश पर जोर देने और वंचितों को समान शर्तों पर मुख्यधारा में लाने की आवश्यकता के बीच एक उचित सामंजस्य है। जिन लोंगो का कहना है कि दक्षता और आरक्षण में कोई अंतर नहीं है, उन्हें बताना चाहिए कि खेल,फिल्म अभिनय या संगीत के क्षेत्र में आरक्षण क्यों नहीं है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण लाभ के पात्र होने के अलावा, अनारक्षित अवसरों के खालीस्थान में स्वतंत्र रूप से प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि जाति विभाजन और अस्पृश्यता के पीछे के कारक धर्म से बाहर हैं। जितनी जल्दी हम इसे समझेंगे और उचित कदम उठाएंगे, देश के लिए उतना ही बेहतर होगा। हमें उन राजनीतिक नेताओं से सावधान रहना चाहिए जो वास्तविक कारकों से ध्यान भटकाते हैं और अपनी विफलताओं को छिपाते हैं।
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(लेखक आईएसईसी, बेंगलुरु में मानद विजिटिंग प्रोफेसर और गुलबर्गा विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं। उन्होंने अर्थशास्त्र के अलावा धर्म और नैतिकता पर अनेककिताबें लिखी हैं।
उनका आवासीय पता: प्रो. एमवी नाडकर्णी, 40/1, ‘समागम’ , नगरभावी, बेंगलुरु 560072। फोन: +9844213677। ईमेल: [email protected])।
सुश्री साहित्य प्रेमी, साहित्य चर्चा, पाठक भी, लेखक भी हमारी पहल का हिस्सा बनिये सनातन हिंदू धर्म को क्या डेंगू, मलेरिया की तरह खत्म कर देना चाहिए। सदस्य, क्या सनातन हिंदू धर्म को डेंगू, मलेरिया की तरह समाप्त कर देना चाहिए, इस पर प्रो०वार्डवानी के साथ विस्तार के साथ वार्ता का एक आलेख मिला है। जिसे यथावत प्रस्तुत किया जा रहा है। एक प्रयास है। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है। ६३९६३३७९४८पर, हम आपकी प्रतिक्रिया को भी स्थान देगें संजय उप सम्पादक