(​कल का दिन: जब हिंदी प्रेम की बाढ़ आई)

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कल का दिन बेहद ख़ास था। सोशल मीडिया की दीवारें हिंदी के प्रति प्रेम से रंगी हुई थीं। ऐसा लगा मानो हिंदी के सम्मान के लिए एक क्रांति आ गई है और अब किसी आंदोलन की ज़रूरत नहीं। हर कोई अपने-अपने तरीके से इस मिशन में शामिल था। कविताओं, लेखों और गंभीर विचारों की ऐसी बाढ़ आई कि एक पल को लगा, जैसे हिंदी ने अपना खोया हुआ गौरव सचमुच वापस पा लिया है। यह माहौल देखकर मन में एक उम्मीद जगी, पर एक सवाल भी उठा – क्या यह सब हमेशा के लिए है?


​आज का दिन: जब सपना टूट गया
​लेकिन आज की सुबह सब कुछ सामान्य है। कल जो हिंदी प्रेम का सागर उमड़ रहा था, आज वह पूरी तरह सूख चुका है। सोशल मीडिया पर वही अंग्रेजी शब्दों का बोलबाला है और कल की वे सारी पोस्ट अब कहीं नज़र नहीं आ रहीं। कल का वह खूबसूरत उत्सव एक मीठे सपने जैसा था, जो आज आंख खुलते ही टूट गया। आज कोई हिंदी के भविष्य पर बात नहीं कर रहा। ऐसा सन्नाटा है, मानो हिंदी सिर्फ कल के लिए ही महत्वपूर्ण थी।

​हिंदी का भविष्य: दिखावा या स्वाभिमान?
​यह अनुभव हमें सोचने पर मजबूर करता है: क्या हिंदी सिर्फ एक तारीख की मोहताज है? क्या उसका सम्मान सिर्फ एक दिन का दिखावा बनकर रह जाएगा? अगर हमें सच में हिंदी को सम्मान देना है, तो हमें हर साल 14 सितंबर का इंतज़ार क्यों करना पड़ता है?
​हिंदी का असली भविष्य 14 सितंबर के स्टेटस में नहीं, बल्कि हमारी रोज़मर्रा की बातचीत, हमारे काम और हमारी सोच में है। इसे एक दिन का त्योहार नहीं, बल्कि हर दिन का स्वाभिमान बनाना होगा। असली बदलाव तब आएगा, जब हिंदी के लिए हमारा प्रेम किसी तारीख पर निर्भर नहीं करेगा।

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